18 बरस की उम्र से बीजेपी की राजनीति करने का फल है ये.
ये एक मेसेज था. जो त्रिलोचन महतो की टीशर्ट पर लिखा था. उनके पैर के पास एक पर्ची पड़ी थी. उस पर लिखा था-
चुनाव के वक्त से ही तुम्हें कत्ल करने की कोशिश कर रहा था. नाकाम रहा. मगर आज तुम मारे गए.
मारकर पेड़ से टांग दिया, ऐलान के लिए मेसेज छोड़ा
किसी ने त्रिलोचन महतो को कत्ल करके उन्हें पेड़ से टांग दिया. मारने वाला औरों को भी बताना चाहता था. कि त्रिलोचन की हत्या क्यों हुई. इसीलिए उसने ये मेसेज लिख छोड़ा. त्रिलोचन महतो बीजेपी कार्यकर्ता थे. ये घटना 30 मई की है. पश्चिम बंगाल में पुरुलिया नाम का जिला है एक. वहीं, जहां दिसंबर 1995 में आसमान के रास्ते सोवियत में बने AK-47 गिराए गए थे. किसने गिराए, कहां से आए, ये आज भी पहेली है. उसी पुरुलिया के बलरामपुर में त्रिलोचन महतो की लाश पेड़ से टंगी मिली.
घर से फोटोशॉप कराने पड़ोस तक गया, अगवा हो गया
त्रिलोचन बस 20 साल का था. बलरामपुर कॉलेज में इतिहास पढ़ रहा था. बीए का तीसरा साल था. 29 मई शाम वो अपने घर के पास ही एक फोटोशॉप की दुकान पर गया. न्यू इंडियन एक्स्प्रेस अखबार ने लिखा है. कि शाम तकरीबन छह बजे त्रिलोचन ने अपने भाई विवेकानंद को फोन किया. बताया कि उसे जान से मारने की धमकी मिल रही है. कि किसी ने फोन करके धमकाया है. इसके बाद त्रिलोचन लापता हो गया. इसी दिन रात के समय उसने फिर से अपने भाई को फोन किया. बोला कि किसी ने उसे अगवा कर लिया है. वो गिड़गिड़ा रहा था फोन पर. भाई से कह रहा था. प्लीज, मुझे बचा लो. त्रिलोचन के घरवालों ने पुलिस में शिकायत दर्ज कराई. त्रिलोचन के पिता ने पुलिस को छह नाम बताए. कहा कि ये लोग उनके बेटे को जान से मारने की धमकी दे रहे थे. पुलिस पूरी रात त्रिलोचन को खोजती रही. लेकिन वो नहीं मिला. मिला तो 30 मई को. जिंदा नहीं, मुर्दा.
पहला इल्जाम तो तृणमूल पर ही है
त्रिलोचन की लाश पोस्टमॉर्टम के लिए भेज दी गई. इसे राजनैतिक हत्या माना जा रहा है. जिस तरीके का मेसेज छोड़ा गया, उससे तो पहली नजर में यही लगता है. कि त्रिलोचन को बीजेपी का होने की वजह से मारा गया. बीजेपी कार्यकर्ताओं का कहना है कि पंचायत चुनाव के वक्त से ही त्रिलोचन को निशाना बनाया जा रहा था. बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह ने भी सीधे-सीधे तृणमूल कांग्रेस का नाम लिया है. मगर पुरुलिया पुलिस चुप है. कह रही है कि जांच कर रही है. कि अभी कुछ कहना या किसी नतीजे पर पहुंचना जल्दबाजी होगी. फिलहाल कोई गिरफ्तार भी नहीं हुआ है. वो भी नहीं, जिनका नाम त्रिलोचन के पिता ने अपनी शिकायत में लिया था.
अमित शाह ने एक ट्वीट किया. लिखा-
राज्य सरकार के संरक्षण में खूब सारी संभावनाओं से भरी एक जवान जिंदगी छीन ली गई. उसे पेड़ से लटका दिया गया. बस इसलिए कि उसकी विचारधारा राज्य के संरक्षण में फलने-फूलने वाले गुंडों से अलग थी.
खुद ही खुद की जांच करो और बरी हो जाओ!
अमित शाह ने ये भी लिखा कि तृणमूल सरकार ने हिंसा के मामले में पश्चिम बंगाल की कम्युनिस्ट सरकार के दौर को भी पीछे छोड़ दिया है. उधर तृणमूल कांग्रेस ने इन इल्जामों से इनकार किया. उसने अलग थिअरी दी है. तृणमूल की नेता सृष्टि धार महतो ने कहा कि जो हुआ, वो बीजेपी की अंदरूनी लड़ाई का नतीजा है. इस घटना की जांच CID से करवाने की मांग की. मांग जाने क्यों की, प्र देश में सरकार तो उन्हीं की पार्टी की है. CID वैसे भी प्रदेश पुलिस में आती है. पुलिस प्रदेश सरकार का कहा मानती है. हत्या का इल्जाम राज्य सरकार पर है. यानी जिसके ऊपर इल्जाम है, उसको ही अपने खिलाफ जांच करने की सहूलियत दे दी जाए.
ऐसे शासन पर तो सरकार को शर्मिंदगी होनी चाहिए
मई का महीना पश्चिम बंगाल में पंचायत चुनावों का था. जमकर हिंसा हुई. खुलेआम बूथ लूटे गए. बैलेट बॉक्स नदी में तैरते मिले. ये भी दिखा कि तृणमूल के कार्यकर्ता विपक्षी दल के कार्यकर्ता को घेरकर उसे पीट रहे हैं. इसी चुनाव में तृणमूल के एक मंत्री बीजेपी कार्यकर्ता को मारते दिखे. ये भी दिखा कि तृणमूल के कार्यकर्ता लोगों को वोट डालने से रोक रहे हैं. अकेले 14 मई को, यानी जिस दिन वोट पड़े, 18 लोग मारे गए. ये सब खुलेआम होता रहा. इतना कुछ होने पर भी ममता बनर्जी की सरकार अपनी पीठ थपथपाती रही. इतनी हिंसा और ऐसी बदतर कानून-व्यवस्था पर तो शर्म के मारे मुख्यमंत्री को इस्तीफा दे देना चाहिए था. मगर ममता ने न तो ऐसा कुछ किया, न करेंगी. क्योंकि ये सारा माहौल राजनीति का है. सत्ता की ताकत के सहारे विरोधियों को खत्म कर अपनी तानाशाही बनाने का है. और इसीलिए हिंसा की और करवाई जा रही है.
ये खूनी परंपरा शुरू करने का दाग कांग्रेस के माथे पर है
दिक्कत पश्चिम बंगाल की भी है. वहां राजनीति का इतिहास काफी खूनी रहा है. हिंसाओं का ये सिलसिला 1967 में शुरू हुआ. जब बांग्ला कांग्रेस की अगुवाई में वामदलों ने सरकार बनाई. मुख्यमंत्री बने अजय मुखर्जी. ये बंगाल की पहली गैर-कांग्रेसी सरकार थी. केंद्र में कांग्रेस ही थी मगर. उसने विरोध शुरू किया. राज्य सरकार ने भी जवाब दिया. फिर आया 1972 के चुनाव से. पश्चिम बंगाल के प्रभारी रहे कांग्रेस नेता सिद्धार्थ शंकर रॉय के नेतृत्व में कांग्रेस ने खूब उत्पात किए. बूथ लूटे. कांग्रेस किसी भी कीमत पर लेफ्ट की सरकार नहीं बनने देना चाहती थी. इसके लिए राजनैतिक हत्याओं का सहारा लिया गया. पश्चिम बंगाल के लोग इन हत्याओं की संख्या 1 हजार से लेकर 11,000 तक बताते हैं. ऐसे लोग, जिनको इस सत्ता संघर्ष में जान गंवानी पड़ी. यहीं से पश्चिम बंगाल में राजनैतिक हिंसाओं की रवायत शुरू हुई.
सबसे ज्यादा जिम्मेदार, सबसे ज्यादा कसूरवार ममता हैं
1972 के इस हिंसक चुनाव में कांग्रेस को जीत हासिल हुई और सिद्धार्थ शंकर रॉय मुख्यमंत्री बने. सिद्धार्थ शंकर रॉय से लेकर टीएमसी की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के कार्यकाल तक करीब 30,000 राजनैतिक लोगों की हत्या देखी है. 1972 में यहां के मुख्यमंत्री बने थे सिद्धार्थ शंकर रे. उनके दौर से गिनती शुरू करते हुए ममता बनर्जी की मौजूदा सरकार तक आएं, तो इस बीच बंगाल में करीब 30,000 राजनैतिक हत्याएं हुई हैं. सत्ता और विपक्ष, दोनों ही तरफ से हिंसा हुई है. मगर इतिहास का क्या है. इतिहास में तो हमारे यहां सती प्रथा भी होती थी. फिर खत्म हो गई. ममता बनर्जी मुख्यमंत्री हैं. संवैधानिक पद पर हैं. पश्चिम बंगाल में हो रही इन टारगेटेड हत्याओं और तमाम तरह की हिंसा के लिए पहली उंगली उनके ऊपर ही उठनी चाहिए.
पता नहीं, हम कहां-कहां के लिए ‘जंगल राज’ विशेषण का इस्तेमाल कर देते हैं. असल जंगल राज तो पश्चिम बंगाल में है.