1 नवंबर, 1999
ये तारीख आंख में भर लीजिए. एक गलत कदम. एक गलत फैसला. किस तरह तकदीर बदल देता है, इसकी मिसाल देने और समझने के लिए ये बहुत मुफीद तारीख है.
इस तारीख को इंडिया टुडे मैगजीन का एक इशू छपा था. मैगजीन के अंदर एक रिपोर्ट थी. रिपोर्ट क्या थी, लिस्ट थी एक. जिसकी हेडिंग थी-
नई सदी में इन भारत ीय नेताओं पर रहेगी नजर.
इस लिस्ट में 17 नेताओं का नाम था. सबसे ऊपर चंद्रबाबू नायडू. सबसे नीचे… ये सस्पेंस बाद के लिए छोड़ देते हैं. इस लिस्ट में 15वें नंबर पर एक नेता था. फोटो में वो एक बिस्तर पर बैठा एक बच्चे के साथ शतरंज खेल रहा था. शायद अपने ही बेटे के साथ. इस नेता की प्रोफाइल के ऊपर लिखा था- दलित होप. माने, दलितों की उम्मीद. प्रोफाइल में अंदर एक लाइन लिखी थी-
पहली बार सांसद बने इस शख्स को शतरंज खेलना पसंद है. इनकी आगे की चालें इन्हें बिहार की राजनीति की अगली पांत में खड़ा करेंगी. बिहार, जहां जाति की राजनीति पहले कभी इतनी अहम नहीं रही.
इस लिस्ट में बिहार से ये इकलौती एंट्री थी. इनसे ठीक दो पायदान नीचे, लिस्ट का 17वां और आखिरी नाम भी इसी पार्टी का एक नेता था.
19 साल बाद उस लिस्ट का रिवीजन करते हैं
ये 2018 है. उस लिस्ट को बने 19 साल बीत चुके हैं. वो 17वां आदमी आज की तारीख में देश का सबसे मजबूत, सबसे ताकतवर नेता है. उसका नाम है- नरेंद्र मोदी. और वो 15वां आदमी? वो अब जाकर बिहार का विधान पार्षद चुना जाने वाला है. 19 साल पहले सांसद बना. 16 साल पहले केंद्रीय मंत्री. तो अब विधान पार्षदी? क्यों? पीछे क्यों लुढ़की गाड़ी? शतरंज में एक प्यादा गलत चल जाए, तो वजीर मर जाता है. राजनीति भी ऐसी ही चीज है. एक गलत दांव, एक गलत टाइमिंग और आदमी पीछे छूट जाता है. हमारी इस खबर के किरदार के साथ शायद ऐसा ही हुआ. क्या हुआ, ये आगे बताएंगे.
तीन नाम, तीन वोट बैंक
संजय पासवान. बिहार में बीजेपी के शायद सबसे बड़े दलित नेता. बिहार में विधान परिषद की 11 सीटों के लिए चुनाव था. बीजेपी ने इसके लिए अपने तीन उम्मीदवार उतारे. एक सुशील मोदी, दूसरे स्वास्थ्य मंत्री मंगल पाण्डेय और तीसरे संजय पासवान. तीन उम्मीदवार. तीन ‘कास्ट’ ग्रुप. तीन वोट बैंक. तीनों निर्विरोध चुन लिए गए. संजय पासवान की राजनीति में बड़ा धूप-छांव है. खुद दलित नेता हैं. लेकिन ये कहने में हिचक नहीं रखते कि पार्टी चलाना दलितों के वश की बात नहीं. विरोध होने पर पार्टी के खिलाफ भी बोल जाते हैं. दूसरी पार्टी की राजनीति से ट्रेडमार्क प्रतीकों को अपना बना लेते हैं. बाबा साहेब से लेकर जगजीवन राम तक, कांशीराम से लेकर आर के नारायणन तक, सबको अपना बताते हैं. बड़ा दिलचस्प सफर है संजय पासवान का. नक्सली आंदोलन से शुरू करके संघ की राजनीति करने लगना. सच बताइए, ये बात दिलचस्प नहीं है क्या?
‘पढ़ोगे-लिखोगे तो बनोगे नवाब’
बिहार के नक्शे में उत्तर की तरफ देखिएगा. एक जिला नजर आएगा- दरभंगा. इसका हेडक्वॉर्टर है लहेरियासराय. इसी लहेरियासराय में एक टोला है- नवटोलिया. कभी ये एक गांव होता था, अब मुहल्ला बन गया है. यही मुहल्ला संजय पासवान का स्थायी पता है. यहीं पर 2 मई, 1962 को वो पैदा हुए थे. महावीर राम और कृष्णा देवी की गृहस्थी में. मां-बाप ने तय किया. बच्चों को खूब पढ़ाएंगे. बच्चे भी पढ़ने वाले निकले. खूब पढ़े. उस जमाने में लहेरियासराय के अंदर बहुत कम ही इतने पढ़े-लिखे दलित परिवार रहे होंगे.
क्या चेंज है: नक्सली बना संघी
एक तो बिहार. वो भी 80 के दशक का. ये दौर बिहार में छात्र राजनीति के लिहाज से सबसे डेयरिंग दौर था. कॉलेजों के जवान-जहान लड़के पढ़ते कम थे. राजनीति ज्यादा करते थे. 100 में से 90 तो सिर पर दुनिया बदलने का भूत लादे चलते थे. बंगाल का पड़ोसी था बिहार. नक्सल आंदोलन इधर भी खूब बढ़ा था. आपको ‘हजार चौरासी की मां’ याद है? वो गोहिंद निहलानी की फिल्म. या फिर वो सुधीर मिश्रा की ‘हजारों ख्वाहिशें ऐसी’. समझिए कि वैसी ही हालत थी. ऐसे माहौल में जब संजय पासवान कॉलेज पहुंचे, तो उनका मन लगा वामपंथ से. हिंसक वामपंथ. एक्स्ट्रीम लेफ्ट. कि हथियार उठाने से ही क्रांति आएगी. कि क्रांति से ही न्याय मिलेगा. सर्वहारा. बुर्जुआ. ये सब खूब किया. छात्र राजनीति का एक बेसिक फंडा होता है. मानते हैं कि जवानी में जिधर निकल लिए, बस फिर उधर के ही हो जाते हैं. आप देखिए न. अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद (ABVP) या नैशनल स्टूडेंट्स यूनियन ऑफ इंडिया (NSUI) वालों को. ABVP वाले बीजेपी जाते हैं. NSUI वाले कांग्रेस. बाद में पार्टी बदले, अलग बात है. मगर राजनीति शुरू होने की रवायत तो यही है. इस लिहाज से भी संजय पासवान अलग किरदार निकले. ईर घाट से निकले तो सीधे बीर घाट आ लगे. एक्स्ट्रीम लेफ्ट से सीधे एक्सट्रीम राइट. यानी, RSS. हां, राजनीति के अलावा जो पढ़ाई की, उसमें बीएससी कर लिया. फिर दो एमए किए. और पीएचडी भी कर ली.
‘बच्चा-बच्चा राम का’
ये 1990 का वक्त था. राम जन्मभूमि आंदोलन पीक पर था. लहर थी एक. इसी लहर में संजय पासवान भी इधर आ गए. भारतीय मजदूर संघ यानी BMS. RSS का लेबर यूनियन. इसी से जुड़ गए संजय पासवान. BMS को खड़ा किया था दत्तोपन्त ठेंगड़ी ने. संजय पासवान इनका बड़ा नाम लेते हैं. कहते हैं, ठेंगड़ी के असर में आए यहां. ये BMS संजय पासवान का लॉन्चपैड साबित हुई. यहां से चले, तो 1994 में बीजेपी जॉइन कर ली. 1995 का बिहार विधानसभा चुनाव लड़ा. ये वही वाला चुनाव था. मुख्य चुनाव आयुक्त रहे टी एन शेषन बनाम बिहार के तब के मुख्यमंत्री लालू यादव की पकड़म-पकड़ाई वाला चुनाव. दरभंगा के पास समस्तीपुर जिला है. यहीं की वारिसनगर सीट से संजय पासवान चुनाव लड़े. और हारे. फिर उपचुनाव हुआ. उसमें भी खड़े हुए. दोबारा हार गए.
भरी महफिल में लालू को रुसवा कर दिया…
पार्टी ने उनको दो मौके दिए. दोनों में उनकी हार हुई. इसके बावजूद पार्टी ने उन्हें संगठन में बड़ा पद दिया. बिहार में पार्टी का जनरल सेक्रटरी बनाया. कहते हैं संगठन में बड़ा सधा हुआ हाथ था संजय पासवान का. नरेंद्र मोदी का फिर से जिक्र करने का मन कर रहा है. मोदी भी इस दौर में संगठन का ही काम देखते थे. उनमें भी संजय पासवान जैसा ही संगठन का हुनर था. इसी दौर की एक घटना है. 1996 का साल था. एक दलित सभा चल रही थी. लालू यादव भी पहुंचे हुए थे. सभा के बीच में उठकर संजय पासवान ने लालू से इतने सवाल पूछे कि लालू सन्न. भरी सभा में उऩ्होंने जैसे लालू यादव की हंसी उड़ाई. ऐसा लगा, मानो वो लालू को चिढ़ा रहे हों. जो लालू औरों को पस्त किया करते थे, उनको पस्त कर दिया संजय पासवान ने. लालू एकदम ‘अगिन च, बाई च’, माने बहुत गुस्सा हो गए. सभा छोड़कर चले गए. ये शायद पहली बार था, जब संजय पासवान के स्पार्क को मीडिया ने नोटिस किया.
अरे महराज, बहुत इंटेलेक्चुअल आदमी हैं उ तो
दरभंगा के किसी आदमी से संजय पासवान के बारे में पूछिएगा, तो ज्यादातर लोग कहेंगे- ‘इंटेलेक्चुअल’ आदमी हैं. ये इंटेलेक्चुअल साइड उनका राजनीति के साथ-साथ चल रहा था. एक तरफ नेतागिरी थी. दूसरी तरफ पटना यूनिवर्सिटी में रीडर थे. लेबर ऐंड सोशल वेलफेयर डिपार्टमेंट में. दोनों चीजें अच्छी चल रही थीं. पत्नी (1985 में शादी हुई थी) को भी शादी के बाद इंटर, ग्रेजुएशन, एमए, पीचएडी सब करवाया. खुद यूनिवर्सिटी में पढ़ाते थे. पत्नी केंद्रीय विद्यालय में टीचर थीं, जो आगे चलकर मगध यूनिवर्सिटी में प्रफेसर हो गईं.
कौन बोला कि 13 मनहूस होता है
इन दिनों केंद्र में रिले रेस चल रही थी. चुनाव बाद चुनाव हो रहे थे. ऐसा लग रहा था कि देश में चुनाव के अलावा कुछ हो ही नहीं रहा है. 11वीं और 12वीं लोकसभा के चुनाव फिसड्डी रहे थे. अटल बिहारी वाजपेयी एक बार 13 दिन की सरकार और एक बार 13 महीनों की सरकार चला चुके थे. फिर आया 1999 का साल. 13वीं लोकसभा के चुनाव. 13 को जाने क्यों लोग खराब नंबर मानते हैं. इस तारीख को शादियां नहीं होतीं. ऊंची-ऊंची इमारतों में 12 के बाद सीधे 14 नंबर के फ्लोर की गिनती आ जाती है. 13 का ही नामकरण 14 कर दिया जाता है. भारत में सरकारों के टिकाऊपन के लिहाज से ये 13वां आम चुनाव लकी रहा. पूरे पांच साल की सरकार बनी. लकी तो ये संजय पासवान के लिए भी रहा. बिहार की नवादा सीट से पहली बार लोकसभा का चुनाव लड़ा और जीत भी गए. सांसद बन गए.
कैबिनेट पहुंच गए
इस दौर में उनके साथ सब कुछ अच्छा-अच्छा हो रहा था. सांसदी के बाद पार्टी ने उनको राष्ट्रीय सचिव भी बना दिया. साथ में ओडिशा (तब का उड़ीसा) और अरुणाचल प्रदेश का प्रभार भी मिल गया. और फिर आया 2002. संजय पासवान को केंद्रीय कैबिनेट में जगह मिली. संचार और सूचना प्रौद्योगिकी मंत्रालय में राज्य मंत्री का दर्जा मिला. मानव संसाधन विकास मंत्रालय (HRD) में भी जूनियर मंत्री बन गए. यहां उनके सीनियर थे मुरली मनोहर जोशी. इस दौर का एक बड़ा मजेदार किस्सा है.
दलित नेता और ‘ब्राह्मण सांप’ की कहानी
ये 2003 की बात है. एक दिन अखबारों में संजय पासवान की तस्वीर छपी. गले में दो मोटे-मोटे गेहुंअन सांप. संजय पासवान दरभंगिया हैं न. उधर दरभंगा में सांपों की भी जाति होती है. ये जो गेहुंअन होता है, उसके ऊपर एक धारी सी होती है. लोग कहते हैं, ये उसका जनेऊ है. ये जो गेहुंअन है, उसको ब्राह्मण मानते हैं उधर. एकदम जान पर न बन आए, तब तक लोग गेहुंअन नहीं मारते. खबर आई कि गले में गेहुंअन डाले नाचते दिखे हैं संजय पासवान. इतना ही नहीं. नंगे पांव आग पर भी चले. करीब 200 लोग जमा थे वहां. आग पर चलने के बाद उनको अपना तलवा दिखाते हुए बोले- देखो, नहीं जला न. ये विश्वास की ताकत है. ये वाकया यूं घटा कि संजय पासवान ने कई सारे ओझा-गुनियों को बुलाया था. उनका कहना था कि ओझा-गुनी जो कर रहे हैं, वो भारत की प्राचीन संस्कृति है. एक किस्म की विद्या है. इसको बढ़ावा दिया जाना चाहिए. सिलेबस में पढ़ाया जाना चाहिए. करीब 51 ओझा-गुनियों को इनाम भी दिया गया. वो जो बाल खोलकर गोल-गोल सिर भांजते हैं, वैसे ओझा-गुनी. और वो भी, जो पीठ पर पका केला चिपकाकर कुत्ते के काटने का इलाज कर देते हैं. और अगर किसी को सांप काट ले, तो पीठ पर थाली चिपकाकर देखते हैं कि जहर चढ़ा है या नहीं. थाली चिपक गई, मतलब जहर चढ़ा है. गिर गई, मतलब नहीं चढ़ा है. थाली चिपके या गिरे, ये उस आदमी को रातभर चिकोटी काट-काटकर जगाए रखते हैं. तो केंद्रीय मंत्री ने ऐसे-ऐसों को इनाम से नवाजा.
‘स्कूल चलें हम’ हमारी जुबां पर अब तक है
जब ये खबर आई, तो बड़ा हंगामा हुआ. लोगों ने अपना कपार पीट लिया. HRD का जूनियर मंत्री ये सब तमाशा कर रहा है! कह रहा है कि स्कूल-कॉलेज में बच्चों को ओझा-गुनी की विद्या सिखाओ! उन्हें तांत्रिक बनाओ! कई लोगों ने तो ये भी कहा कि HRD मिनिस्टरी में जूनियर और सीनियर (मुरली मनोहर जोशी) की ‘राम मिलाये जोड़ी’ है. कहते हैं कि जोशी जी को भी इन सब चीजों में बड़ा भरोसा था. लालू यादव ने तो संजय पासवान का इस्तीफा मांग लिया. बोले कि अंधविश्वास फैलाना अपराध है और तुम जूनियर शिक्षा मंत्री होकर ये काम कर रहे हो. इस दौर का सबसे बड़ा जिक्र उनका यही है. जिक्र, मतलब जो याद रहता है. वैसे तो सर्व शिक्षा अभियान में भी काफी हाथ बताया जाता है इनका. वो जो ‘स्कूल चलें हम’ वाला प्रोग्राम था न, उसी में.
बीजेपी हारी, संजय भी हारे
इसके बाद आया 2004. चुनावी साल. बीजेपी ‘इंडिया शाइनिंग’ का नारा लेकर चुनाव लड़ने आई. ऐसा लग रहा था कि बड़ी आसान जीत मिलेगी. मगर ऐसा हुआ नहीं. दोबारा जीत नहीं मिली. संजय पासवान भी नवादा से चुनाव हार गए. बीजेपी के कई नेताओं में सुगबुगाहट थी. कि इस हार के पीछे एक बड़ी वजह गुजरात दंगा भी है. इन्हीं दिनों सुप्रीम कोर्ट ने भी गुजरात दंगों की जांच दोबारा शुरू करने का आदेश दिया. इधर ये हुआ और उधर संजय पासवान ने बीजेपी छोड़ दी. बोले कि बीजेपी ने दलितों और अल्पसंख्यकों की बेइज्जती की है. ऐसा लग रहा था कि उनको नरेंद्र मोदी से दिक्कत है. उन्होंने कहा भी:
अटल बिहारी वाजपेयी और शाहनवाज हुसैन गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी के खिलाफ थे. पार्टी के कई बड़े नेताओं ने माना कि गुजरात दंगों की वजह से हम चुनाव में हारे. लेकिन इस तथाकथित पार्टी अनुशासन की वजह से इन नेताओं ने इस मामले में कुछ नहीं किया.
लालू का क्या गणित था?
बीजेपी छोड़कर संजय पासवान लालू यादव के साथ आ गए. संजय पासवान को अपने साथ लेने में लालू को फायदा दिख रहा था. लालू को लगा कि रामविलास पासवान को काउंटर करने के लिए अब उनके पास संजय पासवान हैं. रामविलास पासवान के पास ‘दुसाध’ (जाति के अर्थ में इस्तेमाल किया है) वोट बैंक है. बिहार में इस वर्ग की पूरी वफादारी रामविलास पासवान के साथ मानी जाती है. दुसाध दलितों के भीतर का एक ही वर्ग है. बिहार की आबादी में करीब 8 से 9 फीसद वोटर्स दुसाध वर्ग के हैं. हाजीपुर, बलिया और समस्तीपुर में तो ये 11 पर्सेंट से भी ज्यादा हैं. संजय पासवान को लाने के पीछे लालू का यही गेम प्लान था. इस वोट बैंक को अपनी तरफ खींचना. पूरा नहीं, तो कुछ ही सही. इसके अलावा लालू के लिए संजय पासवान एक ऐसा दलित चेहरा थे, जो न केवल वोट ला सकते थे, बल्कि उनके पास पढ़ाई-लिखाई की भी ताकत थी. तब RJD के नेता शंकर यादव ने कहा भी था-
संजय जी के पास तो पीएचडी भी है.
लालू यादव कि संजय पासवान, किसका समय खराब था?
लालू यादव ने संजय पासवान को RJD का राष्ट्रीय प्रवक्ता बनाया. 2005 के बिहार विधानसभा चुनाव में RJD ने वारिसनगर सीट की आरक्षित सीट से संजय पासवान को खड़ा किया. उनके मुकाबले रामविलास पासवान की लोक जनशक्ति पार्टी (LJP) के माहेश्वर हजारी चुनाव लड़ रहे थे. हजारी को कुल 38,147 वोट मिले. संजय पासवान को 32,318 वोट मिले. 5,829 वोटों से हार गए संजय पासवान. वक्त संजय पासवान का खराब था या लालू का? ये सवाल अनुत्तरित है.
और उस साल मालूम चला, लालू यादव अमर नहीं है
कभी बिहार के लिए एक कहावत कही जाती थी. जब तक रहेगा समोसे में आलू, तब तक रहेगा बिहार में लालू. 2005 इस कहावत के झूठा साबित होने का साल था. ये साल था नीतीश कुमार का. जेडी (यू) और बीजेपी गठबंधन का. इस साल दो बार चुनाव हुए. एक फरवरी में. उसमें किसी पार्टी को बहुमत नहीं मिला. फिर अक्टूबर में चुनाव हुए. और इसमें जीतकर नीतीश कुमार बिहार के मुख्यमंत्री बने. अब तो लोग हर आई-गई बात को ऐतिहासिक बता देते हैं. लेकिन अगर सच में कुछ ऐतिहासिक कहे जाने लायक चीज होती है, तो बिहार में आया ये बदलाव वही था.
…तो विश्वनाथन आनंद कब के PM बन गए होते
अफसोस कि ऐसे वक्त में संजय पासवान बीजेपी के बाहर थे. वो लालू यादव की नाव पर तब सवार हुए, जब उस नाव की पाल चूहे कुतर चुके थे. और दीमक उसका पेंदा चाट गए थे. बिहार में बीजेपी इतनी मजबूत पहले कभी नहीं हुई थी. तब अगर संजय पासवान बीजेपी में होते, तो? हो सकता है कि वो सुशील मोदी की जगह होते. या ये भी हो सकता है कि उनसे भी आगे निकल जाते. शतरंज के खिलाड़ी से राजनीति समझने में बड़ी चूक हो गई. फसल लगाने में मेहनत की, लेकिन बखारी में भरने का टाइम आया तो बाहर चले गए. मगर फिर ये भी बात है कि अगर शतरंज और राजनीति का सच में कोई रिश्ता होता, तो विश्वनाथन आनंद कब के प्रधानमंत्री बन गए होते.
फिर तुम कौन और हम कौन
संजय पासवान RJD में ज्यादा दिन टिके नहीं. चुनाव तो हार ही गए थे. फूट गई हांडी, सलाम भाई चूल्हा. वहां से कांग्रेस चले गए. फिर 2007 में छठ बाद LJP जॉइन कर लिया. पत्रकारों ने पूछा, क्यों जा रहे हैं. बोले- राम विलास पासवान के नेतृत्व में दलित राजनीति को नई ऊंचाई पर ले जाना चाहता हूं.
हां हां, हो गई घर वापसी
माइग्रेट्री बर्ड्स पता हैं? वो परदेसी चिड़िया, जो अपने घर से हजारों मील दूर जाती है. और फिर एक खास मौसम में वापस अपने घर लौट आती है. ऐसे ही संजय पासवान अगस्त 2008 में वापस बीजेपी आ गए. कलराज मिश्र (जो कि तब बिहार में पार्टी के राजनैतिक मामलों के प्रभारी थे), राधा मोहन सिंह (प्रदेश बीजेपी अध्यक्ष), रविशंकर प्रसाद और कई सारे बीजेपी नेताओं की मौजूदगी में संजय ने वापस पार्टी जॉइन कर ली. कलराज मिश्र ने कहा- इनकी घर वापसी हुई है.
जख्म भरने में वक्त लगता है
‘घर वापसी’ तो हो गई, लेकिन चीजें वापस पहले जैसी नहीं हो पाईं. बहुत धीरे-धीरे, बहुत हौले-हौले मामूली सा पुश मिला. कुछ साल यूं ही बीते. सूखे-सूखे. तब संजय पासवान राजनीति से ज्यादा यूनिवर्सिटी में ऐक्टिव रहते. पढ़ाने-लिखाने में. सेमिनार अटेंड करने में. किताबें लिखने में. ढेर सारी किताबें हैं इनके नाम पर. एक दलित इनसाइक्लोपीडिया तो बड़ा फेमस है. इंडियन एक्सप्रेस समेत कई अखबारों में इनके कॉलम आते थे. 2013 में पार्टी ने उन्हें अनुसूचित जाति मोर्चा का राष्ट्रीय अध्यक्ष बनाया. 2015 में पार्टी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी में जगह मिली.
पार्टी लाइन से अलग जाने में नहीं हिचकते
संजय पासवान के बारे में लोग कहते हैं. कि वो मन की कहते हैं. मन की करते हैं. कई बार ऐसा भी होता है कि पार्टी आम बोलती है, तो ये इमली बोल देते हैं. जैसे- रोहित वेमुला पर. याद है, स्मृति ईरानी ने संसद में क्या परफॉर्मेंस दी थी. तब संजय पासवान ने कहा था कि क्या हमारी पार्टी और क्या बाकी पार्टियां, सब गलती कर रही हैं. फिर एक बार किसी रिपोर्टर ने गोरक्षकों के बारे में सवाल किया. तो बोले कि सारे गोरक्षक देशद्रोही हैं. उनको फांसी पर चढ़ा देना चाहिए. बोले-
मोदी जी प्रधानमंत्री हैं. देश चलाते हैं. उनको भी सामने आकर गोरक्षकों पर बयान देना पड़ता है. सोचिए. वो भी कितने मजबूर हैं. उनकी भी नहीं सुनी जा रही है.
‘दलितों के घर जाकर खाने से दलितों का भला नहीं होने वाला’
फिर एक बार अमित शाह और मोहन भागवत के खिलाफ बोल दिए. वो दलितों के घर जाकर खाना खाने वाली बात पर. कहा- इस सबसे कुछ नहीं होगा. ऐसी सांकेतिक चीजों से कुछ नहीं हासिल होने वाला है. वक्त आ गया है कि सवर्ण दलितों को अपने घर बुलाएं. वहां उनके साथ खाना खाएं. दलित का जूठा अपने घर पर गिराएं. ये उनके घर जाकर खाना खाने से कुछ नहीं बदलेगा.
कमरे में कांशीराम की तस्वीर लटकाए रहते हैं
लोग कहते हैं, अपने हिसाब से चलते हैं. जो ठीक लगता है, करते हैं. शायद इसीलिए संजय पासवान बीजेपी के इकलौते ऐसे नेता होंगे, जो अपने कमरे में कांशीराम की तस्वीर लटकाते हैं. आप सोचिए. जिन कांशीराम के नाम से दुनिया को मायावती याद आती हैं, उनकी तस्वीर लटकाना बहादुरी का काम तो है. संजय पासवान से पूछो, तो कहते हैं. दलितों के नेता कांशीराम बस मायावती के हैं, ये किसने कहा.
‘बिहार में बहार’ लाने की तैयारी है?
सोचिए. जिस आदमी के बारे में पढ़ा, उसने कहां से शुरू किया था. कहां-कहां चले. और कहां पहुंचे. कभी पुरबा, कभी पछुआ. वो खुद कहते हैं- नक्सलवाद से राष्ट्रवाद. फिर समाजवाद. और फिर ‘दलितवाद’. 2019 बस आया ही समझिए. चुनाव भी बस आ ही रहा है. बिहार की भाषा में- लचकियेल है. पिछली बार बिहार चुनाव से पहले संघ से चूक हुई थी. आरक्षण पर बयान दिया उसने और बीजेपी फंस गई थी. इस बार लड़ाई से पहले ही किले में रसद जमा किया जा रहा है. बीजेपी जानती है कि ‘बिहार में बहार’ लाने के लिए दलित वोट बैंक साधना होगा. शायद इसीलिए संजय पासवान को विधान परिषद भेजा जा रहा है. भविष्यवाणियों पर जाने क्यों हमेशा नास्त्रेदमस का ही नाम लेते हैं. न्यूटन का क्यों नहीं लेते? क्रिया होती है, तो प्रतिक्रिया होती है. यानी कुछ हुआ है, तो कुछ जवाबी होगा. कुछ होना है, तो कुछ होगा. इस लाइन में बस साइंस नहीं है. भविष्यवाणी भी है. सोचिए. चुनाव न हो, तो कितनी सारी चीजें नहीं होंगी. या फिर जब हुई हैं, तब नहीं होंगी.