*इस संसार में जन्म लेने के बाद प्रत्येक मनुष्य अपने परिवार के संस्कारों के अनुसार अपना जीवन यापन करने का विचार करता है | प्रत्येक माता पिता की यही इच्छा होती है कि हमारी संतान किसी योग्य बन करके
समाज में स्थापित हो | जिस प्रकार परिवार के संस्कार होते हैं , शिक्षा होती है उसी प्रकार नवजात शिशु का संस्कार होने लगता है | अपने परिवार के परिवेश के अनुसार वह अपनी शिक्षा प्रारंभ करता है | इन्हीं में से कुछ लोग विद्वान बन जाते हैं कुछ चिंतनशील हो करके समाज के उत्थान का चिंतन करने लगते हैं , कुछ चिकित्सक बन करके
देश की चिकित्सा सेवा में योगदान देते हैं , और कुछ देश के अन्यान्य क्षेत्रों में अपना योगदान दे कर के समाज की नींव को मजबूत करते हैं | कोई भी देश दो प्रकार से मजबूत होता है | वाह्य मजबूती एवं आन्तरिक मजबूती | एक ओर तो सीमा पर लगे हुए सेना के जवान हमारी वाह्य सुरक्षा करते हैं , हम को वाह्य मजबूती प्रदान करते हैं तो दूसरी ओर हमारे देश के अंदर अनेक विद्वान , चिकित्सक , सामाजिक चिंतक एवं महापुरुष देश के संस्कारों के अनुसार अपनी पीढ़ियों को मजबूत करते हैं , जिससे देश साहित्य , कला , संस्कृति आदि में भी मजबूत होकर विश्व के समक्ष एक आदर्श प्रस्तुत करता है | इनमें से भी विभिन्न क्षेत्र के विद्वानों का महत्वपूर्ण योगदान होता है | अपने - अपने क्षेत्रों में यह विद्वान अपनी योग्यता के अनुसार समाज को आगे ले जाने का कार्य करते हैं |* *आज समाज में पुस्तकों को पढ़ने मात्र से बने हुये विद्वान अधिक मात्रा में दिखाई पड़ रहे हैं | आज हमारी संस्कृति हमारे संस्कार कहां जा रहे हैं यह हम स्वयं नहीं देखना चाहते हैं | कुछ पुस्तकों के द्वारा ज्ञानार्जन करके स्वयं को विद्वान की श्रेणी में बताने वाले यह तथाकथित मनुष्य विद्वान कहने की योग्य ही नहीं होते हैं | क्योंकि मेरा "आचार्य अर्जुन तिवारी" का मानना है कि विद्वान समुद्र की तरह होता है जो कि पृथ्वी की सभी नदियों को को स्वयं में समाहित करने के बाद भी कभी उबाल/उफान नहीं मारता | परंतु आज के विद्वान जरा सी बात पर वाद-विवाद करने को तैयार दिखाई पड़ रहे हैं | यह भी विद्वानों की परिभाषा नहीं कही जा सकती है | जिस प्रकार अनेक शोरगुल होने के बाद भी एक हाथी मात्र अपनी मंजिल को लक्ष्य करके अपनी राजसी चाल में चलता रहता है उसी प्रकार विद्वान भी अनर्गल वाद - विवाद से अपने को बचाते हुए गंभीरता का परिचय देकर के एक शब्द में सारी चर्चा का निचोड़ प्रस्तुत करने का प्रयास करता है | परंतु आज अधिकतर विद्वान तर्क - कुतर्क के मायाजाल में स्वयं को लपेटे हुए दिखाई पड़ते हैं , जो उनकी विद्वता पर एक प्रश्न चिन्ह लगाता है | यह विद्वान उसी प्रकार कहे जा सकते हैं जैसे किसी को कहीं से थोड़ा धन प्राप्त हो जाए तो स्वयं को कुबेर समझने लगते हैं | मेरे कहने का तात्पर्य यह नहीं है कि विद्वान नहीं होते यह विद्वान तो होते हैं परंतु यह भी अकाट्य है कि आज के विद्वानों में अहंकार की मात्रा अधिक दिखाई पड़ती है जो कि कहीं न कहीं से विद्वता के पतन का कारण बनती प्रतीत हो रही है |* *एक विद्वान को , शिक्षक को , एवं चिकित्सक को धीर गंभीर होना चाहिए अन्यथा ये अस्तित्व विहीन होकर पतित हो जाते हैं |*