दीदार-ए-रूख़सार
तरस गई है आंखें उनके दीदार-ए-रूखसार को,
और वो हैं कि ख़्वाबों में भी घूंघट में आते हैं,
कोई तो कह दे उनसे कि हम ना यूं ज़ुल्म करें,
हमारा ना सही हमारे दिल का तो कुछ ख्याल करें।
इस दिल में उन्हीं का डेरा है, जो तड़पाएंगे इस दिल
को तो दर्द उन्हें भी होगा, कभी तो ख्वाबगाह में रूख
से नकाब हटाए कर मिलों, इस ख्वाबगाह पर बस
इकमुस्त हक तुम्हारा है, तुम्हारे सिवा इस दिल ने ना किसी को पुकारा है।
रानी हो इस दिल की घर की रानी भी बन जाओ ना,
जिस तरह आती हो ख़्वाबों में मेरी ज़िन्दगी में भी आ
जाओ ना,
मैं बन के दुल्हा बैठा हूं तैयार तुम्हारी डोली लाने को,
अपने दिल की तरह घर की भी रानी बनाने को।
फिर हमारे दरम्यान ना कोई नकाब होगा, ना ज़माने
का हिजाब होगा, घूंघट तुम्हारा हक से फिर उठाएंगा मैं,
तुम समा जाओगी मुझमें, और तुझमें समाऊंगा मैं,
बन जाओगी तुम मेरी, तुम्हारा बन जाऊंगा मैं, इन नैनों
को ता-उम्र दीदार-ए-रूख़सार कराऊंगा मैं।
प्रेम बजाज ©®
जगाधरी ( यमुनानगर)
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