आसूंवो में भिगी हुंवी ,
आई एक मायूस शाम,
बेबजह की नाराजगी,
तेरी हुंवी थी सरेआम!
किस बात से तू खफा,
जो कभी ना मैं बेवफा,
क्यू ही रिश्तों में तू रुठा,
ना था प्यार मेरा झूठा!
कितने कडवे थे तेरे बोल,
जहर का जहरीला हो घोल,
मिठा चाशनी सा वजूद अपना,
क्या रह जायेगा बनके सपना!
सारे गिले शिकवे थे तुझे ही,
मैं खामोश खडी बदहाल सी,
आवाज तो मेरी भी बुलंद थी,
पर चूपचाप मैं बेआवाज सी!
शायद सुन रही तुझे गौर से,
अकेली बहती नदी के छोर सी,
गुस्सा करने का तेरा हक था,
रिश्ता हमारा दिवानगी का था!
मुझसे दूर कहीं चला गया,
दिल से दूर ना जाने दिया,
गलती मेरे समझने में क्यू,
इंतजार में गमें शामें बिती!
आज लौटकर ऐसे आया,
जैसे दूर कभी ना हो गया,
बारादें में घर के बैठे बैठे,
आज की हसी शाम आई!
एक तेरी माफी से देखो,
कितने दर्द मैं भूला बैठी
आसूंवों की वो हर शामें,
मुस्कान के नाम कर बैठी !