बचपन से देखा मैंने ख्बाब की आयेगा
सफेद घोडे पर होकर राजकुमार सवार,
पर ऐसा क्यूँ ना हूँवा की बडे होकर भी,
ना भूला पाई मैं दिल से वहीं एक खुमार।
परिदों को आसमाँ में उडाता स्वच्छंद होकर,
सोचती थी काश!मैं भी होती जो एक परिंदा,
ना होता लकीरों का बंधन, मनमर्जी ही उडते,
चाहे जहाँ में बस बिना टिकीट, वाहन के जाते।
सोचती थी कितनी आसाँ होगी मन की उड़ान,
पर बढते बढते हुँवी मेरी ज़ंजिरों से पहचान,
अनदेखी सी कितनी बेडियाँ पाँव से लिपटी,
कुछ में मैं बंध गई तो कुछ तो दिल से अपनाई।
अब सोचती हूँ एक ख्बाव आँख में लिए उड लू,
दूर है मंजिल मेरी पर धीरे धीरे पास उसके जाऊ,
मोहमाया की है वो दुनिया अभी से मैं जानती हूँ,
पर ख्बाब की मेरी ताबिल बस वहीं एक दुनिया है।
माना की आजतक नाकामयाबी से गूजरा है सफर,
पर हौसला तो आज भी बुलंद है मेरे मन के अंदर,
उम्र तो ढल रही पर कुछ उड़ान अब भी बाकी है,
बचपन का बचपना भी अब तक मुझमें बाकी है।
एक उड़ान को तो मैं फिलहाल बैठके लिख रही,
कुछ अपने हिसाब से सातों सूरों को मैं जोड रही,
राजकुमार ना सही पर मन का सच्चा कोई ढूँढे हूँ,
लकीरों को छोडो जहाँ तक मुमकिन सफर कर रही।