वो भी क्या नायाब से दिन थे,
जो पशुओं का मेला सजता था,
बच्चों और पशुओं की आंगन में,
शोर शराबों की गूंज हरदम रहती।
खेत तो एकरों में थे अपने तब पास,
पशुओं के घास की ना थी होती कमी,
सब मिल जूडकर रह पाते थे घर में,
बटवारों से ना होती थी घर में नमीं।
पपीहा, गाय, भैस, कुत्तें, घोडे और
ना जाने कितने गिनवाने मैं यूँही बस,
पर मालिक से सभी होते थे वफादार,
अकेलेपन तो पास से छुकर ना गूजरता।
बच्चों के माफिक पशुओं से होता प्यार,
पशु कहाँ रहे पिछे, वो भी थे सच्चे यार,
पूरा गाँव ही होता था मानो एक मकान,
परायेपन का तो कहीं भी ना था निशान।
तरक्की में वो अपनापन कहीं छुट गया,
गाँव उजडकर शहर में बदल अब गया,
ना वो पनघट रहीं जो दिलों को जोडती,
ना कच्चे रास्ते जो एकदुसरे से होकर जाते ।
सब अपने अपने आप में गुमसूम हो गये है,
रास्तों पर पशु बेघर बदहाल घूमते रहते है,
जो कभी डालियों पर गूँजती कई आवाजें,
पेड कटने के साथ साथ वो भी खामोश है।
आये दिन होती तभी तो प्राणियों की हिस्सा,
ज़ंगल तो कट गये कहाँ बचा उन्हें ठिकाना,
इंसान ही हो गया यहाँ सबसे क्रूर जानवर,
किसी ओर से क्या शिकायत करे हम खैर।