बचपन से पसंद थी, मुझे घूंगरु की रुणझूण,
पर मेरे पापा को ना भाँता, मेरा घूंगरु पहनना,
याद है मुझे एक वाकया, रुठ बैठे हम पापा से,
वहीं जिद थी थानी जो पापा को ना गवारा थी।
पापा मेरे जैसे ही जिद्दी कहाँ आसानी से मानते,
पर मेैं भी महाजिद्दी कहाँ वो मेरे आगे टिक पाते,
रोना, धोना ,जिद करना सारे हथियार मैनें अपनाये,
जब ना माने तब दादी माँ से शिफारिश भी लगवाई।
क्यूँ ना पता था की मुझे पापा को घूंगरु ना पसंद थे
जब की कितनी प्यारी बोली बोलते घूंगरु प्यारे प्यारे,
दोनों में क्या गुफ्तगू हुँवी मैं आज तक ना जान पाई,
घूंगरु तो ना मिले पर प्यारी पायल मेरे पाँव में आई।
पायल को घूंगरु की तरह थिरकाती इधर उधर दौडी,
घर क्या मैं खुशी से रास्तों पर भागने निकल को चली,
खुशी इतनी थी की पैर जमीं पर ना रुक पा रहे थे मेरे,
लग रहा था की साथ दौडेै है आसमाँ और जमीं भी मेरे।
जब बेफ्रिक होकर रास्तें पर चल पडी मैं बदहाल दौडने,
सामने से आई थी अपने धून में कोई कार होकर दिवानी,
पापा जोर से आवाज लगाके दौडते हूँवे मुझे गले लगाया,
एक थप्पड जोर से डाँट के साथ मेरे गाल पर जड दिया।
वैसे ही खिंचते वो दादी माँ के पास मुझे लेकर चले गये,
सारा वाकया बया करके वो गुस्से से मुझ पर बरसने लगे,
दादी माँ ने उन्हें समझाया बित गया वो वापस ना होगा,
जिस तरह बहन को गवाया बेटी को ना होगा कभी गवाना।
घूंगरु हमेशा ना होते बूरे संभाल के जिम्मेदारी से पहने बस
खुशी में अपने आसपास के दुनिया को कभी ना भूले बस,
बेचारे घूंगरु तो खुशी की बजह बेबजह उसपे दोष ना लगे,
जानके सच्चाई मैने पापा के गले लगाकर माफी माँग ली।
पापा भी बर्फ के जैसे गये पिघल भूल गये सारा जो हूँवा,
घूँगरु पाँव में अब भी है थिरकते मेरे पर ज़रा जिम्मेदारी से,
अब तो घर में सभी का साथी है रुणझूण पाँव की पायल,
पर कुछ वादों से अब भी बंधी हुँवी है हम सबकी पायल।