
*हमारे देश भारत में सभी त्योहार बड़े ही हर्षोल्लास के मनाए जाते रहे हैं | हमारे त्योहारों ने समस्त विश्व के समक्ष सदैव एक आदर्श प्रस्तुत किया है इन्हीं त्योहारों में होली का त्योहार एक उदाहरण प्रस्तुत करता रहा है | पूर्वकाल में होली के दिन इतना हर्षोल्लास देखने को मिलता था कि सनातन धर्म को मांनने वाले अपने घरों से निकलकर एक दूसरे से गले मिलते रहे हैं ! अनेक प्रकार के रंग जब चेहरे पर लगते थे तो सतरंगी बन करके मनुष्य के जीवन में उन रंगों को घोल देते थे | अपने घरों से निकलकर टोली बनाकर लोग एक दूसरे को रंग एवं अबीर लगाकर के आपसी वैमनस्यता को भूल जाया करते थे | पुरानी से पुरानी शत्रुता भी होली के दिन समाप्त हो जाती थी | वैमनस्यता , ईर्ष्या , द्वेष का त्याग करके लोग होली के दिन अपने शत्रु से भी गले मिलते थे , घरों में पूरी , कचौरी , गुझिया आदि अनेकों पकवान बना कर लोग स्वयं तो खाते ही थे साथ ही अपने दरवाजे पर आने वालों का भी स्वागत उन्हीं पकवानों से करते थे | जहां विभिन्न संस्कृतियां एक साथ रहकर निवास करके समस्त विश्व के समक्ष आदर्श प्रस्तुत करती थी वही अनेक प्रकार के रंग एक में मिलकर एक उदाहरण प्रस्तुत किया करते थे | दूर प्रदेश में रह रहे लोग होली के दिन अपने परिजनों एवं समाज के लोगों से मिलने के लिए अपने घर चले आया करते थे जिससे कि आपस की दूरियां समाप्त हो जाया करती थी परंतु अब समय परिवर्तित हो गया है | अब उपरोक्त कोई भी दृश्य देखने को नहीं मिल रहा है , जिस होली को सभ्य समाज का मिलनसार पर्व कहा जाता था वही होली अब हुड़दंग का प्रतीक बन गई है | विचार करने वाली बात है कि हम कहां थे और कहां आ गए हैं | आज हमारे त्योहारों को हम कैसे मना रहे हैं यह विचारणीय विषय है |*
*आज मानवता के इस पर्व ने अपने मूल स्वभाव को छोड़ दिया है और इस पर दानवता प्रभावी हो गई है | आज कोई भी सभ्य मनुष्य होली के दिन अपने घरों से निकलना नहीं चाहता क्योंकि आज होली का रूप परिवर्तित हो गया है | एक दूसरे का सम्मान कर के रंग अबीर लगाने का पर्व अब बदल गया है | अब होली में नशे में धुत हुड़दंगों की टोलियां निकलती है जो मार्ग में आने जाने वाले परिचित परिचित को रंग लगाकर उनके वस्त्र फाड़ देते हैं | यदि गलती से महिलाएं किसी आवश्यक कार्य बस अपने पति या भाई के साथ कहीं जा रही हैं तो इन हुड़दंगों को मनोरंजन का साधन मिल जाता है | मैं "आचार्य अर्जुन तिवारी" होली के इस स्वरूप को देख रहा हूं जहां लोग एक दूसरे से गले मिलने पर भी विचार करते हैं कि किस से मिलना है किस से नहीं मिलना है | जिससे अपना कोई कार्य सिद्ध होना है लोग उसी से मिलना चाहते हैं | अमीर एवं गरीब के भेद को मिटा देने वाला पर्व आज अमीर एवं गरीब की खांईं को पाटने में विफल हो रहा है | आज होली के दिन सभ्य समाज एवं सम्मानित महिलाएं भय के कारण अपने घरों से निकलना नहीं चाहती है | क्या हमारे पर्व का यही उद्देश्य था ? क्या हम जो आज कर रहे हैं यही हमारे पूर्वज करते आए हैं ? दूसरों की नहीं तो कम से कम अपने पूर्वजों के कृत्यों को याद करके हमें इस पर्व को मनाना चाहिए , परंतु नहीं आज हम आधुनिक हो गए हैं | आधुनिक होने के साथ ही हम अधिक बुद्धिमान भी हो गए हैं | किसी के रोकने पर ना तो हम मानना चाहते हैं ना ही अपनी संस्कृति को जानना चाहते हैं | इस पर विचार करने की आवश्यकता है अन्यथा होली का बदला हुआ स्वरूप हमारी आने वाली पीढ़ियों के लिए कोई भी आदर्श छोड़कर नहीं जा सकता | आज आवश्यकता है युवाओं को यह बताने की कि होली का अर्थ क्या होता है | होली मिलन समारोह यदि मनाए जाते हैं तो इनका अर्थ मात्र अबीर लगाकर गले मिलना नहीं बल्कि अपने मन के मैल को धोकर निस्वार्थ भाव से निष्कपट होकर एक दूसरे से गले लगना ही इस त्यौहार का वास्तविक अर्थ है | जब तक हम होली के सत्य स्वरूप को नहीं पहचानेंगे तब तक होली का स्वरूप यूं ही बिगड़ता चला जाएगा |*
*होली अब तो हो ली | अगले वर्ष पुन: फाल्गुन पूर्णिमा को यह पर्व मनाया जाएगा परंतु तब तक हमें इसके स्वरूप पर चिंतन मनन करने की आवश्यकता है |*