*सनातन
धर्म में समस्त सृष्टिकाल को चार भागों में विभाजित किया गया है जिन्हें चार युगों का नाम दिया गया | यह युग है सतयुग , त्रेतायुग , द्वापरयुग एवं कलियुग | इसमें से तीन युग तो व्यतीत हो चुके हैं चौथा कलियुग चल रहा है | प्रत्येक युग का आचरण एवं मनुष्य के आचार - विचार भिन्न-भिन्न होता रहा है | पूर्व के तीनों युगों में मनुष्य धर्म , सत्य , पवित्रता , क्षमा , दया आदि का विशेष ध्यान रखते हुए इन गुणों को स्वयं में धारण करते हुए इनके अनुरूप कार्य करते थे | मनुष्य धनी हो चाहे निर्धन परंतु उनमें आपसी प्रेम एवं सौहार्द बना रहता था , इनमें आपसी व्यवहार , समझ एवं ईमानदारी होती थी | मनुष्य धन से नहीं बल्कि अपनी शील -;संयम आदि से श्रेष्ठ माना जाता था | चारों वर्ण अपने - अपने धर्म का पालन करते थे | प्रत्येक अपराध के लिए राजा उचित न्याय किया करते थे | इसलिए पूर्व के तीनों युग दिव्य कहे गए हैं | धर्मात्मा एवं अधर्मी आदिकाल से ही साथ - साथ रहते आये हैं , परंतु अधर्मियों की अपेक्षा धर्मात्मा अधिक प्रभावशाली रहा करते थे | पूर्वकाल में लोग पूजा करते हुए तालाबों गंगा , गोमती , वृक्ष , पर्वत आदि को मानते हुये इनके माध्यम से जीवन जीने में सहायता प्राप्त करते थे | माता - पिता का देवतुल्य सम्मान होता था , द्वार पर आए हुए किसी भी याचक को "अतिथि देवो भव" की भावना से स्वयं भूखे रह कर के भोजन कराना ही परम धर्म था | लोग
समाज की चिंता किया करते थे , समाज में नीति निर्धारण कैसे हो इस पर चर्चा हुआ करती थी | परंतु आज सब कुछ उल्टा हो रहा है |* *आज कलियुग चल रहा है और इस युग के विषय में हमारे महर्षियों ने पूर्वकाल में घोषणा कर दी थी | उनकी घोषणा के अनुसार ही सारे क्रियाकलाप हो रहे हैं | आज उत्तरोत्तर धर्म , सत्य , पवित्रता , क्षमा , दया , आयु , बल और स्मरण शक्ति का लोप होता जा रहा है | आज जिसके पास धन है वही कुलीन , सदाचारी और सद्गुणी माना जा रहा है | धर्म का निर्धारण वही लोग कर रहे हैं जिसके हाथ में शक्ति है | आज न तो व्यवहार की निपुणता बची है न ही सच्चाई और ईमानदारी | जो जितना छल - कपट कर ले रहा है उतना ही व्यवहार कुशल माना जा रहा है | आज अपना कार्य करवाने के लिए सरकारी अधिकारियों को जो जितना सुविधा शुल्क (घूस) देने में समर्थ है वहीं अपना कार्य करवाने में सक्षम दिखाई पड़ता है | जो ज्यादा बातूनी है उसे ही विद्वान माना जा रहा है | मैं "आचार्य अर्जुन तिवारी" देख रहा हूं महर्षि वेदव्यास जी ने जो श्रीमद्भागवत में और गोस्वामी तुलसीदास जी ने जो अपने श्री रामचरित मानस में कलियुग के गुण एवं व्यवहार लिखे थे आज वही सब मनुष्य के आचरण एवं व्यवहार में दिख रहा है | आज विवाह आदि संस्कार के लिए न तो लोग मुहूर्त देख रहे हैं और न ही इसकी आवश्यकता ही समझ रहे हैं | नदियों , तीर्थों आदि की उपेक्षा तो हो ही रही है इससे भी ज्यादा दुखद यह हैं कि आज लोग हमारे देवी - देवताओं की जाति एवं उनके कुल आदि पर
राजनीति करने को उतारू हो गए हैं | यह कलियुग का प्रभाव माना जाए या यह माना जाय कि मनुष्य अपने पतन के लिए मार्ग तैयार कर रहा है |* *मनुष्य अपने जीवन काल में चारों युगों की
यात्रा करता है | उसके आचरण उसके व्यवहार यदि बदल जायं और मनुष्य अपने मन में दृढ़ निश्चयी हो जाय तो आज भी सतयुग जैसा वातावरण देखने को मिल सकता है |*