बात दिव्यांग बच्चों को कम्प्यूटर सिखाने की हो या संस्कृत के छा़त्रों को कम्प्यूटर शिक्षा की या फिर प्रोफेशनल कोर्स में मीडिया स्टूडेंट्स को ट्रेंड करने की. मेरा इनसे गहरा नाता रहा है. इनको सिखाने के दरम्यान मैंने अनुभव किया कि जहां दिव्यांग बच्चों ने चीजों को एकाग्रता से समझने की कोशिश की, वहीं संस्कृत के छोटे बच्चों को माइंडसेट के कारण चीजों को समझने में दिक्कत आई. क्योंकि ठेठ प्राचीन संस्कृति के अनुसार खुद को ढालने के बीच माॅडर्न टेक्नोलाॅजी से रूबरू होना. इनके बीच मीडिया कोर्स के दीवानों की स्थिति बहुत इतर है. कच्चा-पक्का ज्ञान और बड़े-बड़े ख्वाबों के बीच सब आता है की स्थिति उनके भविष्य के लिए घातक बनती जा रही है. हिंदी-अंग्रेजी के बीच झूलते ये मीडिया कोर्स के स्टूडेंट्स हिंदी के बचे न अंगे्रजी के. इसकी वजह साफ है कि उनकी जड़ों का कमजोर होना. अब रही मेरी बात टीचर न बनते-बनते भी टीचिंग कर ली और कर रहा हूं. अखबार की दुनिया को कई बार बाय-बाय करने के बाद भी विश्व के सबसे ज्यादा पढे़ जाने वाले अखबार के ग्रुप के दैनिक जागरण आईनेक्स्ट के देहरादून एडीशन में सीनियर लेआउट आर्टिस्ट के तौर पर अखबार के पन्ने बना रहा हूं. अब कहते है न कि खरबूजे को देखकर खरबूजा रंग बदलता है, तो बस लिखने वालों के बीच उठते-बैठते मुझे भी लिखने की ऐसी आदत लगी सोशल मीडिया में ब्लाॅग लिखते-लिखते ब्लाॅगिंग का स्टार ही बन गया. इन सबके बीच मैंने सिर्फ एक बात सीखी है कि समय और काम की कीमत जिसने समझी, दुनिया भी उसी को समझती है. इस समझ के चलते कई मौके ऐसे आए कि जब मैंने शून्य से उठकर शिखर को छू लिया. इसकी चर्चा फिर कभी. क्योंकि वो बातें बीते वक्त का हिस्सा बन गई. फिलहात तो बस इतना ही कि वहीं पेड़ आंधियों का मजबूती से सामना कर पाते है, जिनकी जड़े जमीन में ज्यादा गहराई लिए होती है. तेजी से बदलती टेक्नोलॉजी के चलते कम्प्यूटर आज की जरूरत बन गया है. कम्प्यूटर पर तेजी से काम करने के लिए की-बोर्ड चलाना बहुत जरूरी है. की-बोर्ड पर आपकी उंगलियां जितनी तेजी चलेगी, उतनी ही स्पीड से आप अपने विचारों को दुनिया के सामने ला सकते है. फिर मीडिया फील्ड की तो बात ही छोडि़ए, आपकी सोच वहां धराशाई हो जाती है, जहां आपकी उंगलियां रूकी. इसलिए कम्प्यूटर का बेसिक की-बोर्ड पर आपका हाथ साफ होना जरूरी है और यही की-बोर्ड चलाना आज के स्टूडेंट्स को अखरता है कि अब क्या टाईपिंग करेंगे हम.