आज का ज्वलंत सवाल 'बच्चे बिगड़ रहे है? जिसने हर किसी को परेशान कर रखा है कि जबकि सच तो यह है कि बच्चे नहीं अभिभावक बिगड़ रहे हैं. क्योंकि हमारी आदत है कि अपनी कमियां न देखकर सीधे दूसरे पर आरोप लगाने की रही है. अभिभावक और टीचर्स के बीच फंसे मासूम बच्चे घर के बचे न स्कूल के. आरोप-प्रत्यारोप के बीच निष्कर्ष यही निकाला जा रहा है कि बच्चे बिगड रहे हैं. बच्चों को सुधारने की लाख कोशिशों के बाद भी वह नहीं सुधर रहे है. इस सवाल के जवाब की तलाश के लिए अभिभावक हैरान-परेशान इधर-उधर भाग रहे है. जबकि इसका जवाब हर अभिभावक के पास मौजूद है. जरूरत है तो बस उसको समझने की. दादा- दादी, नाना- नानी, बुआ- मौसी और मम्मी- पापा जब बच्चे को न समझ पाए, तब मनोचिकित्सक क्या खाक समझेगा. स्टेटस बनाए रखने के लिए मनोचिकित्सकों के चक्कर काटने और पैसा फूंकने से क्या फायदा. जिस बच्चे को मां-पिता ही नहीं समझना चाहते या समझा सकते, उस बच्चे को साइकोलॉजिस्ट क्या खाक समझेगा. बीमार होना या न होना यह अलग बात है. बाज़ारवाद ने जहां रिश्ते-नातों की तो ऐसी-तैसी की ही है वहीं बचपन ख़त्म कर दिया. ईमारदारी से सोचा जाए तो इसके मूल में बेरोजगारी और भ्रष्टाचार की महत्वपूर्ण भूमिका है. मल्टीनेशनल कम्पनीज की बेरोजगारों के बीच अपना साम्राज्य स्थापित करने की होड़ ने तो हद ही कर दी है. अब सोचिए सिर्फ अक्षर
ज्ञान की उम्र में बच्चों के माध्यम से अभिभावक को होमवर्क दिया जाता है, जो गूगल सर्च के बिना हो नहीं सकता. तब मा-पिता तो क्या बच्चे का दिमाग भी ख़राब हो जाता है. बच्चे को चाहिए क्या सिर्फ हिंदी में अ से ज्ञ, अंग्रेजी में ए से जेड और गणित में 1 से 100 तक की गिनती और उसको दिया जा रहा है हाई क्लास एजुकेशन के नाम पर हाई क्लास होमवर्क. अब दिमाग ख़राब नहीं होगा तो क्या होगा. बच्चे हाथ से नहीं निकलेंगे तो क्या होगा, फिर
चाइल्ड एजुकेशन भी मां-बाप की समझ से बाहर होती जा रही है. अब समाज में रहना है, तो बाज़ारवाद को झेलना होगा. वरना दकियानूसी मानसिकता का ठप्पा लगवा लो अपने थोपड़े पर. कहते रहो बच्चे बिगड़ रहे है और साइकोलॉजिस्ट को चढ़ावा चढ़ाते रहो.
ईमानदारी से सोचा जाए तो बच्चों से ज्यादा बड़े बिगड़े हुए, उनके पास अपने बच्चों के लिए समय नहीं है, जिस समय पर बच्चों को अपनी दादी की गोद में बैठकर राजा-रानी की
कहानी सुननी चाहिए, उसी समय दादी को बहू पर राज करने के नुस्खे सीखने के लिए टीवी देखना है, तो इसमें बच्चों का क्या दोष. स्कूल से थके-मांदे हांफते हुए घर पहुंचे बच्चों को खाना खिलाकर होमवर्क कराने की बजाय मम्मी को अपनी ससुराल में महारानी बनने की ट्यूशन केबल चैनल्स के सीरियल्स लेनी है और जब मम्मी को अपनी क्लास से छुट्टी मिलेगी तब ही तो वह बच्चों का होमवर्क कराएगी. फिर पापा की तो बात ही क्या, उनको अपने वर्क पैलेस से ही फुरसत नहीं है, और जो समय मिला भी तो उसमें ऐश भी तो करनी है, बच्चों का क्या वह खुद ही समझदार है. अब खुद ही सोचिए जब हमने बच्चों को खुद उनके हाल ही छोड़ दिया, तो उनकी क्या गलती, फिर बालमन तो वैसे ही बहुत तेजी से सीखता है, जिस बात पर सबसे ज्यादा प्रभाव बालमन पर पड़ता है, वैसा ही बर्ताव बच्चे करने लगते है. अब क्योंकि हमारे समाज में चीजें बहुत तेजी से बदल रही है, टेलीविजन, केबल नेटवर्क, कम्प्यूटर, इंटरनेट के बाद तो चीजे बहुत तेजी से हमारे आसपास तो क्या, घर तक पहुंच गई है. ऐसे में अभिभावकों के लिए जरूरी हो जाता है कि बच्चों पर आरोप लगाने की बजाए अपने व्यस्त समय में से थोड़ा बहुत समय अपने बच्चों के लिए भी निकालने की, ताकि बच्चों के दिलो-दिमाग को अपनी गिरफ्त में लेने को बेताब टीवी सीरीयल्स व इंटरनेट आदि गैर-जरूरी चीजों से बच्चों को बचाया जा सके. फिर यह भी तो कहा जाता है कि बच्चे की पहली पाठशाला उसका घर ही होता है, जहां उसके टीचर उसके मम्मी-पापा होते है, अब जैसा उसके मम्मी-पापा उसको सिखाएगे, वह वैसा ही सीखेगा. बच्चा तो कुछ भी सीखने को बेताब है ही. फिर हम क्यों उसको दूसरे के भरोसे छोड़ते है. हम क्यों नहीं उसको अपने संस्कार सिखाते, क्यों नहीं उसको राजा-रानी, विक्रम-बेताल या चंदामामा की कहानियां सुनाते, क्यों हम उसको बिगबॉस के हवाले छोड़ देते है. क्यों हम उसको लिटिल चैंप बनने के लिए प्रेरित करते है. क्यों हम उनको दुनिया की रेस में आगे रहने के लिए स्पीड बाइक्स चलाने की सीख देते है. जब हम खुद ही अपने बच्चों को खुली छूट देकर उनको बिगड़ जाने के लिए प्रेरित कर रहे है. तब समझ नहीं आता, हम क्यों बच्चों को अपराधी ठहरा रहे है? जबकि असली अपराधी तो स्वयं अभिभावक ही है.
दुनियादारी गई कुर्सीबाजी में, पहले यह सोचो कि स्कूली बच्चे काबिल की बजाय कातिल क्यों हो रहे है? पहले गुरुग्राम, फिर लखनऊ और अब यमुनानगर. छोटे बच्चों के बाद प्रिंसिपल पर गोलियां. लीपापोती नहीं सही कारणों को तलाशना जरूरी है. शुरूआत खुद से ही करनी होगी गलत कौन है. कम से कम बच्चे तो नहीं हो सकते. वो तो कोरा कागज होते है, जो रंग भर दो. हम सरकार बनाने- गिराने के मास्टरमाइंड हो सकते है, लेकिन नन्हे-मुन्नों को संस्कारित करने में फेल साबित होते जा रहे है. आखिर क्यों? बच्चों को दूसरे के भरोसे छोडऩे के बजाय खुद उनके लिए समय निकालने की जरूरत है.