मेरे गांव के इस रास्ते से जो कदम शहर की ओर निकले वो लौटकर वापस नहीं आए, जो आए भी तो कुछ इस तरह आए, कि जिनको आने से ज्यादा वापस लौटने का जुनून था. वहां जहां मेहनत तो थी लेकिन बच्चों की परवरिश के लिए पर्याप्त साधन मौजूद थे. तब ऐसे में दूर स्थित इस पहाड़ी गांव में क्या रखा था जहां ना पीने को पानी, ना बिजली और ना ही बीमारी से बचने का कोई इलाज. आखिर पलायन तो होना ही था और हुआ भी. क्यों नहीं होता पलायन, मूलभूत सुविधाओं की उपलब्धता के संबंध में जिनको प्रतिनिधि बनाकर राजधानी भेजा, जब वही प्रतिनिधि वापस गांव नहीं लौटे तब ऐसे में गांव वासी क्यों नहीं पलायन करते. यह ठीक बात है कि आजादी के बाद से लेकर अब तक कुछ तो हुआ ही है, लेकिन इतना भी नहीं कि उसको एक आम ग्रामीण पर्याप्त मान ले. पहाड़ों पर आज भी अगर किसी को दोपहर बाद बुखार आ जाए या चोट लग जाए तो अगले दिन सूरज निकलने तक उसका दर्द से तडपना तय है. मुख्य कारण यह है कि सडक बहुत अच्छी नहीं है और जो है भी वहां पर वाहन नहीं. डॉक्टर पहाड पर जाना नहीं चाहते, अध्यापक रूकना नहीं चाहते, इन जरूरी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए पहाडवासी पहाड नहीं छोडेगे तो क्या करेंगे. क्योंकि जिंदा रहने के लिए दवाई खानी पडेगी और सभ्य होने के लिए शिक्षा. कोई भी इंसान खुशी से अपना घर नहीं छोडता, अपना अस्तित्व बरकरार रखने की मजबूरी ही उसे जगह बदलने पर मजबूर करती है. मालूम नहीं आखिर कब तक पहाडियों को यह दर्द सहना पडेगा. आज भी कई गांव ऐसे हैं जहां पर सन्नाटा पसरा है. या कुछ समय बाद पसर जाएगा, जब बुजुर्गों की तेरहवीं भी गांव से पलायन कर जाए तब क्या रखा है गांव की जिंदगी में.