मान लीजिए पदमावती रिलीज गई है. लेकिन उसको देखने के लिए न कोई टिकट खरीदता है और न ही टेलीविजन पर फ्री में देखता है. तब टिकट न बिकने से फिल्म के बॉक्स ऑफिस पर धराशाई होने के साथ-साथ टीवी पर दिखाने वालों की टीआरपी भी गिर जाएगी. तब ऐसे में संजय लीला भंसाली और दीपिका का हाल ठीक वैसा ही होगा जैसा डोकलाम विवाद पर चीन का हुआ. किसी को भाव देने पर ही वह भाव खाता है. बात सिनेमा से सीखने की होती तो अब तक पाकिस्तान पानी-पानी हो गया होता क्योंकि वहां का हैंडपंप तो सनी देओल ने गदर में ही उखाड़ दिया था. साथ ही सभी इडियट्स विश्वविख्यात फोटोग्राफर्स, डॉक्टर्स और सीईओ बने दुनिया को चांद पर बैठकर चला रहे होते. बॉलीवुड को इतिहास से कुछ लेना-देना नहीं होता है, उसको तो बस मैं आई हूं यूपी बिहार लूटने की तर्ज पर एन्जॉय करने वालों की जेबें खाली करनी होती है बस. क्या संजय लीला भंसाली भारत का इतिहास नहीं जानते. लेकिन जानबूझकर ऐतिहासिक कहानियों के साथ छेड़छाड़ करके फिल्म के नाम को हाईलाइट्स करने के सिवाय कुछ नहीं है. कभी-कभी किसी बात को इग्नोर करके भी उसकी हवा निकाली जा सकती है. वरना खुद ही सोचिए इस दौर में रिलीज हुई कितनी फिल्मों के नाम किसी को याद है, सिर्फ फिल्मों के शौकिनों के अलावा. लेकिन पदमावती नाम रिलीज होने से पहले ही बच्चे-बच्चे की जुबान पर ऐसा चढ़ गया है. कभी-कभी किसी को हिट करवाने के लिए विरोध प्लानिंग का हिस्सा भी हो सकता है. सामान्य तरीके से किसी को भाव भी नहीं मिलता है. फिर इतिहास के पन्नों को कौन पलटता है. लेकिन अब पदमावती बन रही है तो राजस्थान ी गौरवगाथाएं, जो अब तक इतिहास के पन्नों में ही दर्ज थी , दिलों-दिमाग पर दस्तक देने लगी, वरना कहानियां भी भूत हो गई थी. पदमावती के बहाने ही सही अपनी जड़ों से जुडऩे का मौका तो मिला ही है. विवादित फिल्म का विरोध इसलिए भी जरूरी हो जाता है कि दिलों-दिमाग पर इतिहास की बोरिंग सी होती किताबों के ज्यादा चलचित्र तेजी से अपनी जगह बना लेते है.