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जब जड़ों में पनपता हो भेदभाव

16 अक्टूबर 2016

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featured image जब विश्वविद्यालय अपने शैक्षणिक सत्र तक नियमित न कर पाते हों। सरकार विश्वविद्यालयों को सामान्य स्तरीय सुविधाएं तक देने में आनाकानी करती हो. ऐसे में युवाओं से कैसे उम्मीद की जा सकती है कि वो देश को तरक्की के रास्ते पर ले जाएंगे। न फैकल्टी, न स्टूडेंट्स के बैठने के लिए क्लास रूम और न ही पर्याप्त सुविधाएं। बस, धकापेल एडमिशन और फीस का घालमेल. भारत रहा होगा कभी विश्व में शिक्षा का केन्द्र, लेकिन अब तो विश्वविद्यालय कैंपस राजनीति की प्रयोगशाला के तौर पर तब्दील होते जा रहे हैं। जहां गुरु की जगह सर ने ली है। अब सर के दौर में सिर ही उठेंगे, उन सिरों में क्या होगा, यह गुजरे समय की बात हो चुकी है. वह दौर और था जब गुरु को सर्वोपरि माना जाता था, लेकिन शिक्षा के बाजारीकरण के चलते गुरु-शिष्य की परंपरा खत्म सी हो गई है। अब पैसे के दम पर हासिल की गई शिक्षा में गुरु -शिष्य वाली जैसी कोई बात नहीं हो सकती है। यह बात तो हुई उच्च शिक्षा की। अब बात आती है प्राईमरी एजुकेशन की। आईसीएससी, सीबीएसई और स्टेट बोर्ड। इन तीनों बोर्डों के बीच फंसे अभिभावक और बच्चे आखिर तक इस बात को नहीं समझ पाते कि आखिर एक ही देश में एक तीन बोर्डो की जरूरत क्यों? यह तीनों बोर्ड ही आम जनता में अमीरी-गरीबी के अंतर को कभी खत्म नहीं होने देते है. जब तक ये तीनों बोर्ड एक नही होगे तब तक असमानता की खाई को पाटा नहीं जा सकता। हिन्दी-अंग्रेजी माध्यम का ड्रामा वो अलग। नागरिकों में एकता का भाव जगाने की बजाय भेदभाव तो जड़ों के साथ ही पनपाया जा रहा है। साथ ही बच्चे की आफत ही आफत। जहां अंग्रेजी मीडियम वाले बच्चे आधी-अधूरी एजुकेशन के साथ अदर एक्टिविटी में सिर घपाते मिलेंगे, वहीं हिन्दी माध्यम वाले किताबों के पेज पलटते-पलटते कब बचपन की दहलीज पार कर जाते है, उन्हें तो क्या उनके अभिभावकों को भी पता नहीं चलता। भेदभाव बढ़ाने वाली शिक्षा व्यवस्था को पोषित करने वाली सरकार कहती है कि बचपन बचाओ। जब प्राथमिक शिक्षा व्यवस्था ही लडखडाई हो तो उच्च शिक्षा को कैसे भरोसेमंद माना जा सकता है। भारत को डिजिटल इंडिया बनाने पहले कुछ सवालों के सकारात्मक जवाब तलाशने होंगे। जैसे ग्रामीण इलाकों के सरकारी स्कूलों मे टीचर स्थाई रूप से पढाएंगे। शिक्षा की लचर व्यवस्था ढर्रे पर कैसे आएगी. पब्लिक और सरकारी स्कूलों के बीच बढ़ती खाई को कैसे पाटा जाएगा। मिड डे मील, साइकिल और लैपटॉप जैसी चीजों का लालच देकर आखिर कब तक बच्चों को स्कूल लाया जाएगा। एक समान शिक्षा प्रणाली भारत में कब से लागू होगी। शिक्षा के बाजारीकरण पर रोक कब लगेगी। विश्वविद्यालय कैंपस में जड़े जमाती राजनीति को कैसे दूर किया जाएगा। इन सवालों के सार्थक जवाब आए तो साक्षरता दर बढने के साथ-साथ अन्य क्षेत्रों में भी बेहतर प्रदर्शन कर सकेंगे। इन सबसे अलग आए दिन होने वाली टीचर्स की हड़ताल, अध्यापकों का ट्यूशन के प्रति मोह भी शिक्षा व्यवस्था के लडख़ड़ाने का एक कारण है। शिक्षा व्यवस्था को बेहतर कर लिया जाए तो एक बेहतर राष्ट्र का निर्माण किया जा सकता है। यह बात सही है कि अचानक कुछ नहीं होने वाला। आज शिक्षा व्यवस्था की खामियों को दूर करने का प्रयास शुरू करेंगे तब जाकर हमारी आने वाली पीढिय़ों को इसके सुखद परिणाम देखने को मिलेंगे। वरना यूं ही भारतीय प्रतिभाएं देश छोड़ती रहेगी और अपने सिस्टम को कोसती रहेगी।
kalpana bhatt

kalpana bhatt

उचित प्रश्न उठाया है आपने ।

18 अक्टूबर 2016

kalpana bhatt

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उचित प्रश्न उठाया है आपने ।

18 अक्टूबर 2016

kalpana bhatt

kalpana bhatt

उचित प्रश्न उठाया है आपने ।

18 अक्टूबर 2016

अभिषेक निगम

अभिषेक निगम

गागर में सागर वाली बात कह दी आपने

17 अक्टूबर 2016

रवि कुमार

रवि कुमार

सही प्रश्न उठाया है . आज शिक्षा मंडी ही बन चुकी है जिसका असर बच्चो के भविष्य पर जबरदस्त पड़ रहा है

17 अक्टूबर 2016

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कहीं जनता ही न कर दे सर्जरी

7 अक्टूबर 2016
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भारत में होने वाले आतंकी हमलों को लेकर केंद्र सरकार ने पहली बार सर्जिकल स्ट्राइक जैसा ठोस कदम उठाया है. इस संबंध में जहां आतंकी हमलों से ग्रस्त विश्व के शक्तिशाली देश भारत सरका

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बुराई तू न गई मेरे मन से

9 अक्टूबर 2016
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बुराई का प्रतीक रावण, जो अपनी नाभि में अमृत होने के कारण अमर है. श्रीराम भी रावण के शरीर को ही खत्म कर पाए थे, परन्तु उसकी आत्मा को नहीं मिटा सके, क्योंकि आत्मा तो अजर-अमर है. वहीं आत्मा समाज में विचरण कर है, और अपने मन माफिक शरीर को देखते ही उसको आशिया बनाकर घिनौने कृत्

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जरूरत सोच बदलने की

12 अक्टूबर 2016
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हर सोच, हर कल्पना, हर विचार पर हजारों पन्ने लिखे जा चुके है. कुछ लोगों की दुष्ट मानसिकता की बदौलत आज तक भी हम गुलामी की मानसिकता से पूरी तरह नहीं उबर पाए है. समय के साथसाथ गुलामी की परिभाषा भी बदल गई. पहले विदेशियों का कब्जा होने से हम गुलाम थे. उनको खदेड़ा, तो अब यहां धा

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आगे बढ़ने की प्रेरणा देता है समाज

14 अक्टूबर 2016
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बहुत कुछ करने की तमन्ना दिल में रखते है, पर क्या करें, कभी अपने मन का डर, कभी समाज की बंदिशे कदमों को रोक देती है। इतना तो जानते है कि जिंदगी मौत का दरिया है, और इस मौत के दरिया से होकर गुजरना ही है, लाख कोशिशे कर लें, इस दरिया में बहने से

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जब जड़ों में पनपता हो भेदभाव

16 अक्टूबर 2016
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जब विश्वविद्यालय अपने शैक्षणिक सत्र तक नियमित न कर पाते हों। सरकार विश्वविद्यालयों को सामान्य स्तरीय सुविधाएं तक देने में आनाकानी करती हो. ऐसे में युवाओं से कैसे उम्मीद की जा सकती है कि वो देश को तरक्की के रास्ते पर ले जाएंगे। न फैकल्टी, न स्टूडेंट्स के बैठने के लिए क्लास

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अभिनेताओ का नेतागिरी शो

18 अक्टूबर 2016
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कला के लोगों का काम है कि पुल बनाते रहें और लोगों को अपने काम के जरिए करीब लाते रहें.यह कहना है फिल्मकार किरण राव का. जो मुंबई एकेडमी इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल की चेयरपर्सन हैं. उन्होंने भारत और पाकिस्तान के बीच बढ़े तनाव और यहां पाकिस्तानी फि़ल्मकारों और फिल्मों के व

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क्या मिलेगा शराब पर प्रतिबंध लगाकर

21 अक्टूबर 2016
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समझ नहीं आता शराब पर प्रतिबंध लगाकर क्या मिल जाएगा. शराब ही तो वह माध्यम है जो समाज के हर वर्ग में समानता का अहसास कराती है. बस फर्क है तो शब्दों का, अमीर ने पी तो ड्रिंक की और गरीब ने मुंह से लगा दिया तो दारूबाज. फिर शराब ही तो है जो आदमी के हर दु:ख-दर्द को भुला देती है.

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यौन नहीं, नैतिक शिक्षा की जरूरत

24 अक्टूबर 2016
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आज बच्‍चों को यौन शिक्षा की नहीं, नैतिक शिक्षा की जरूरत है. बच्‍चों को नैतिक रूप से मजबूत बनाने की आवश्‍यकता है. यह तो ज्‍यादा पढे लिखे समझदार और जिम्‍मेदार लोगों का एक घटिया मजाक है समाज के साथ कि बच्‍चों को यौन शिक्षा दी जाए. क्‍या ज

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मुश्किल नहीं है कुछ भी

27 अक्टूबर 2016
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बाजारवाद के दौर में हर चीज बिकाऊ है. बस बेचने की कला आनी चाहिए. चीजों की बात छोडि़ए, अब इंसान भी बिक जाते है, बस शर्त एक ही है कि वह खरीददार की कसौटी पर खरा उतरने की. राष्टï्रीय व बहुराष्टï्रीय कंपनियां युवाओं के लिए बेहतरीन सेलरी पैकेज के साथ हमेशा अपने दरवाजे खुले रखती

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मजहब नहीं सिखाता, आपस में बैर रखना

29 अक्टूबर 2016
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हिंदू समाज सदा से जात-पात, ऊंच-नीच के फेर में फंसा रहा. भोग-विलासिता पूर्ण जीवन जीने की लालसा में अपनों को भुलाने वाले हिंदू समाज में कभी भी एकता नहीं रही. परिणाम स्वरूप पहले मुगलों ने अपना गुलाम बनाया. हिंदू राजाओं ने भी अपनी स्वार्थपूर्ति

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टीआरपी के लिए खुद सुधर जाएगे चैनल्स टीआरपी के लिए खुद सुधर जाएगे चैनल्स

2 नवम्बर 2016
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इलेक्ट्रॉनिक मीडिया पर गौरवशाली भारतीय संस्कृति को बिगाडऩे का आरोप लगता आया है, जबकि यह सच नहीं है, संस्कृति बिगाडऩे के लिए मीडिया से ज्यादा आम जनता दोषी है. याद कीजिए कभी दूरदर्शन ने अपनी संस्कृति के अनुरूप रामायाण, महाभारत, सामाजिक व्यथा को दर्शाते हमलोग, बुनियाद धारााव

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महिला की असली दुश्मन महिला

5 नवम्बर 2016
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महिला अधिकारों की बात करने वाले क्यों भूल जाते है कि महिला की सबसे बड़ी दुश्मन महिला ही होती है. किसी भी महिला के जुल्मोसितम की तह में जाने पर पता चल जाएगा कि उसकी सूत्रधार एक महिला ही है. अब दहेज उत्पीडऩ का मामला हो या दहेज हत्या का. दोनों ही मामलों में पर्दे के पीछे से

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नोटबंदी मुसबीत या फेस्टिवल

13 नवम्बर 2016
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फैसले का विरोध करने वाले मुझे जिंदा नहीं छोड़ेंगे. जानता हूं कि कैसे-कैसे लोग मेरे खिलाफ हो जाएंगे. मुझे बर्बाद करके रहेंगे. उन्हें जो करना है करें. पर मैं ये करूंगा. रविवार को जापान से सीधे गोवा पहुंचे प्रधानमंत्री मोदी ने लोगों को संबोधित करते हुए नोट बंदी पर बात की

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शेर- मछली का याराना और चूहों की चिंता

26 नवम्बर 2016
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घर-घर का कोना-कोना कुरेदने वाले चूहे बहुत परेशान है कि भीगी बिल्ली के गले में घंटी तो कोई भी बांध देता. लेकिन नींद में मालूम ही नहीं चला कि कब जनता ने बिल्ली की जगह शेर को अपना सरदार बना दिया. शेर भी ऐसा कि जिसने तहखाने तो तहखाने, छोटे-मोटे

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मुसीबत का नाम जिंदगी

2 दिसम्बर 2016
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मुसीबत न आए तो शायद जिंदगी नीरस ही हो जाए. मुसीबत तो मुसीबत ही होती है, लेकिन कई मायनों में वह फायदेमंद ही साबित होती है, जैसे मुसीबत आने पर ही अपने-पराए का पता चलता है, साथ ही मुसीबत से उबरने के लिए जो प्रयास किए जाते है, उनकी बदौलत इंसान और ज्यादा मजबूत हो जाता है. मुसी

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रीडर्स पोल की क्या है जरुरत ?

8 दिसम्बर 2016
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प्रतियोगिता में पाठक या पब्लिक सर्वे का क्या मतलब है. जब आयोजको ने रिजल्ट अपने मनमाफिक ही घोषित करना है. पाठक या पब्लिक की राय को दरकिनार करते हुए फाइनल रिजल्ट घोषित किये जाए तो सब फिक्स सा लगता है. लाखों की राय पर कुछेक की राय हावी हो जाए तो वो जनतंत्र नहीं राजतंत्र हो जाता है और राजतंत्र में पब्लि

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तकरार नहीं, मंथन की जरुरत

31 दिसम्बर 2016
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मुद्दों से भटकना और भटकाना राजनेताओं की फितरत है. जनतांत्रिक व्यवस्था में मजबूत विपक्ष न हो तो सत्ता निरंकुश हो जाती है. ऐसे में लोकतांत्रिक व्यवस्था के मायने ही बदल जाते हैं. लेकिन, इससे भी ज्यादा बदतर हालात तब होते हैं, जब पक्ष और विपक्ष में जनहित के मुद्दों के बजाय व्यर्थ की बहस-बाजी में वक्त जाय

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त्रिशंकु विधानसभा की ओर बढ़ता उत्तराखंड

21 फरवरी 2017
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उत्तराखंड की लगभग हर विधानसभा सीट पर कांग्रेस और भाजपा में कांटे की टक्कर है. साथ ही बागियों ने छक कर पार्टी की जड़ों को मठ्ठे से तर करने में कोई कसर नहीं छोड़ी है. तब ऐसे में भाजपा और कांग्रेस कैसे दावा कर सकती है उनकी पूर्ण बहुमत की सरकार

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कभी किसी का नहीं होता 'वक्त'

25 फरवरी 2017
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कहते है वक्त जब मुंह मोड ले तो सब कुछ खत्म हो जाता है और जब वक्त साथ दे तो सब कुछ अपना हो जाता है. पर हम यही पर गलत हो जाते है. जो वक्त को ठीक से पहचान नहीं पाते. क्योंकि वक्त अपनी एक सी स्पीड से लगातार चलता रहता है. बस हम ही उसे पकड़ नहीं पाते. हम निराश और हताश होकर चलना

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आंतकी घटनाएं और भारतीय सेना का धैर्य

10 मई 2017
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कभी-कभी लगता है कि भारत सरकार और पाक सेना की गतिविधियों को देखते हुए भारतीय सेना में विद्रोह हो गया तो क्या होगा. जब डॉक्टर, वकील और नेता या किसी अन्य समुदाय में से संबधित की जानलेवा हमले या दुर्घटना में मौत होती है तो हड़ताल का झंडा बुलंद करते हुए सड़के क्या संसद तक जाम कर दी जाती हो. हाल ही में इंडि

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ज़िंदगी रोटी से चलती है, गोली से नहीं

12 जून 2017
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हर कैटेगरी में आरक्षण की देने की बात करने वाली सरकारों को चाहिए कि वह सभी तरह के आरक्षण समाप्त कर अनारक्षित वर्ग के लिए एक कैटेगरी बना दें. फिर जो सरकार के नुमाइंदों का विरोध करें, उनको उस कैटेगरी में डाल दें. हद है आरक्षण मांगने व देने वालों की. इतनी कैटेगरी बना दी है कि

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जीएसटी ही तो आएगा कोई प्रलय तो नहीं

27 जून 2017
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जीएसटी लागू होना ही है, तो डर किस बात का. आम आदमी का क्या है पहले दो रु पए की चाय पीता था, अब दस रु पए की. लेकिन, चाय पीना बंद तो नहीं करता. जीएसटी लागू होने के बाद चीजें तो बाजार में मिलेंगी ही. अब जो जिस भाव मिलेंगी, मिल ही जाएंगी, अब जीएसटी लागू होने के बाद खाना-पीना ब

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जीवन को बोझिल बनता है समझौता

2 जुलाई 2017
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किसी भी व्यक्ति को अपनी जमीन नहीं छोडऩी चाहिए. क्योंकि जमीन छूटते ही वह हर मोड़ पर समझौते करता है और यही समझौते उसके जीवन को नरक के समान बना देते है. क्योंकि एक बार अगर समझौता हो गया, तो समझो आपने सामने वाले को अपनी जिंदगी में दखलअंदाजी करने का खुला निमंत्रण दे दिया. अब क

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...जब उन्होंने रौंद डाली इंसानियत

26 जुलाई 2017
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दिव्यांग होने के बावजूद मैं सिर उठा कर जी रहा हूं, पढ़ा-लिखा हूं, लेकिन आज जो घटना मेरे साथ घटी है, मुझे पहली बार अपने दिव्यांग होने के कारण रोना आया. इंसानियत शायद मर चुकी है. शिकायत करने पर एक बस के ड्राइवर-कंडक्टर ने हालांकि मुझसे माफी मांगी, मैंने उन्हें माफ भी कर दिया, लेकिन इस घटना ने मुझे बहु

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क्यों न हम ही पहले स्थान पर रहे

1 अगस्त 2017
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थ्री इडियट का वह लोकप्रिय डायलॉग याद है जिसमें आमिर खान शरमन जोशी से कहते हैं कि सफलता के पीछे मत भागो, काबिल बनो सफलता झक मार पीछे आएगी. और काबिल यूं ही नहीं बना जाता. काबिल बनने लिए कडी मेहनत और दूसरों का सम्मान करना जरूरी है. कोई भी अपने आप में पूर्णता नहीं रखता. किसी भी व्यक्ति की सफलता के पीछे

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सबसे बड़ा तीर्थ

3 अगस्त 2017
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लोग अपने घर में मौजूद भगवान रूपी माता-पिता को छोडक़र उन अदृश्य भगवान की खोज में तीर्थस्थलों पर मारे-मारे फिरते है. या अपने घर में मौजूद मॉ को दुखी छोडक़र पूरी रात मां का जाग

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जांच नहीं, कार्रवाई की जरुरत

14 अगस्त 2017
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ऐसी कार्रवाई करूंगा कि मिसाल बनेगी.सीएम आदित्यनाथ योगी ने यह बात गोरखपुर में मेडिकल कॉलेज में बच्चों की मौत के बाद कही है.यूं तो कथनी और करनी में जमीं-आसमां का अंतर होता है. जो जमीं-आसमां के इस अंतर को पाट देता है, वहीं इतिहास बना देता है. अब तो बस इंतजार है बच्चों

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पढ़कर कोई कलेक्टर तो बनना नहीं

16 अगस्त 2017
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कम्प्यूटर के दौर में हम जितनी तेजी से आगे बढ़ते जा रहे है, उतनी ही तेजी से हमारी शिक्षा के पारंपरिक तौर-तरीके व साधन हमसे दूर होते जा रहे है. बचपन में सरकंडे या बांस की एक पोर

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बहू या अलादीन का चिराग

19 अगस्त 2017
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एक बात समझ में नहीं आती है कि जब हमारी हैसियत नहीं होती तो क्यों दूसरे परिवार की प्यारी सी बिटिया को अपने घर में बहू बनाकर लाते है. क्या हम इतने निकम्मे, लूले-लंगडे हो गए है कि बेटे व परिवार की सुख-सुविधा की वस्तुओं को एकत्र करने की नियत के साथ दूसरे से धन ऐंठने के लिए उन

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स्त्री का अपमान मतलब पतन का आगाज

27 अगस्त 2017
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बाबाओं का संसार एक स्वेटर के सामान है. एक धागा क्या टूटा, पूरा स्वेटर ही उधड़ गया. फिर चाहे आसाराम हो या रामपाल या फिर राम रहीम. सिर्फ एक क्लू मिलते ही सारा तिलिस्म भरभरा कर गिर पड़ा. ये भारतीय न्याय व्यवस्था है, जिसमे दोषी के बचने की कोई गुंजाइश नहीं है. हां इतना जरूर

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फर्जी बाबा - अंधभक्त और आफत

3 सितम्बर 2017
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दूसरों की ओर ऊंगली उठाने वाले यह क्यों भूल जाते है बाकी की तीन ऊंगलियां उन्हीं की ओर इशारा कर रही है. बाबाओं को दोषी ठहराने से पहले अपने गिरेबां में भी झांक कर देखना होगा कि जब जानते-समझते हुए अपना सब कुछ बाबा के चरणों में न्यौछावर कर दिया था. तो फिर बाबा को दोषी कैसे ठहराया जा सकता है. गलत आचरण और

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दुविधा में डाल देता है शिक्षक दिवस

4 सितम्बर 2017
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शिक्षक दिवस- बड़ी दुविधा में डाल देता है। पुराने समय की बात और थी, जब गुरुकुल वाली व्यवस्था थी। विद्या अर्जन के लिए गुरु की शरण में जाना होता था। समय बदला, व्यवस्था बदली। अब सब कुछ आपकी इच्छा पर निर्भर करता है। आपके पास धन है तो गुरु स्वयं आपके द्वार पर पहुंच जाएंगे। वरना

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समाज की दशा व दिशा तय कर रहा है मीडिया

5 सितम्बर 2017
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सामाजिक ढांचे में मीडिया की महत्वपूर्ण भूमिका होती है. तकनीकी रूप से मजबूत मीडिया आज समाज की दशा व दिशा तय कर रहा है. यह अलग बात है कि वह अपने इरादों में कितना कामयाब होगा. हाल फिलहाल में हुई कुछ घटनाएं इस बात का जीता-जागता उदाहरण है. कुछ समय पूर्व भ्रष्टाचार के विरूद्ध एक शख्स की आवाज को रातों-रात

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जिंदगी: बचपन से लेकर बुढ़ापे तक भाग-भागम

10 सितम्बर 2017
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जिंदगी भी क्या है, बचपन से लेकर बुढ़ापे तक भाग-भागम, पहले अपने पैरों पर चलने की जल्दी में घुटने छिलवाए. किसी तरह चलना शुरू किया तो घर की चौखट लांघने की जल्दी. थोड़ा आगे बढ़े तो स्कूल में एडमिशन की भाग-दौड शुरू. ले देकर मम्मी डैडी ने एडमिशन करा दिया तो क्लास में आगे निकलने

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हिंदी दिवस: अतिथि तुम कब जाओगी?

12 सितम्बर 2017
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‘अतिथि देवो भवः’ दुनिया भर में घूमते-घूमते एक दिन अंग्रेजी हिन्दी के घर में आई। शुरू-शुरू में अच्छा लगा, नया मेहमान आया है। खूब-खातिरदारी हुई। घर के हर कोने में अच्छा सम्मान मिला, हर किसी को लगा मेहमान अच्छा है। हिन्दी मेहमाननवाजी करते-करते कब अपने घर में बेगानी हो गई, हिन्दी को पता भी न चला। अंग्रे

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बंद अक्ल खुली मंद-मंद

24 सितम्बर 2017
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दिमाग में उलझन सी रहती है. मन बैचेन रहता है. क्योंकि लिखे बगैर रहा भी नहीं जाता और लिखना भी नहीं आता. आखिर क्या लिखूं? पता नहीं मेरी सोच को क्या हो गया है. छोटे मुंह बड़ी बातें करते-करते न जाने क्या हो गया कि छोटी सी बात लिखने के लिए भी शब्द नहीं मिल रहे है. मेरे कुछ दोस्त कहते है कि तुम उपन्यास क्य

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दोस्ती प्यार और धोखा

25 सितम्बर 2017
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हमारा समाज आखिर किस ओर जा रहा है, कुछ समझ नहीं आ रहा है. लगभग हर सफल पुरुष के पीछे किसी महिला का हाथ होता है, लेकिन आज बदनाम होते हरेक पुरुष के पीछे भी महिला का ही हाथ है. आखिर ऐसा क्यों? एक बात मेरी समझ में आती है कि ताली कभी भी एक हाथ से नहीं बजती. ताली बजाने के लिए दोनों हाथों को मिलाना जरूरी होत

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उत्तराखंड में रंगमंच की एक आधार शिला नाट्य गुरु श्रीश डोभाल

26 सितम्बर 2017
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कंधे पर बैग ,बैग में २ कपडे और नाटक और रंगमंच की जीती जागती मिसाल न पैसे और न खाने की चिंता रगो में बहता रणमंच एक परिचय है श्रीश डोभाल का. कहते है अगर जीवन में समाज की बेहतरी के लिए कोई उदेश्य न हो तो वो जिंदगी निर्थक और बेजान सी हो जाती है लेकिन उदेश्य को लेकर आगे बढ़ते

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झुर्रियों संग बढ़ती है अनुभव की गहराई

27 सितम्बर 2017
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मैं क्या लिख सकता हूं. मैं लेखन की दुनिया में प्रतिष्ठित नाम कमाने लायक भी नहीं हूं. शब्दकोष व भाषा के मामले में निपट गंवार क्या जानू, लेखन की शक्ति को. बस यूं ही हिंदी का ककहरा सीख लिया रोजी-कमाने लायक. लेकिन रोटी कमाने का जरिया भी बना तो कम्प्यूटर और उस पर भी हिंदी न्यूजपेपर में लेआउट आर्टिस्ट की

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आखिर कोई कितना सुस्ताएगा?

7 अक्टूबर 2017
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जिंदगी! एक अनबुझ पहेली है. जिसको आज तक कोई नहीं सुलझा पाया है. यह एक ऐसी पहेली है, जिसको जितना सुलझाओ, उतना ही उलझ जाती है. जिंदगी सुख-दुख के दायरे में सिमटी खुशियों के साथ शुरू होती है, लेकिन इसका अंत दुख और निराशा के साथ होता है. हंसते-मुस्कराते कोई नवजात जैसे-जैसे जिंदगी के रास्तों पर आगे बढ़ता ह

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बिटिया की प्रशंसा के लिए शब्द नहीं

11 अक्टूबर 2017
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आज हर इंसान परेशान है। बच्चे, युवा या फिर बुजुर्ग, हर कोई परेशान ही दिखता है। बच्चों की परेशानी का कारण तो एक बार समझ आ जाता है कि उनका बचपन कही खो गया है, और वह समय से पहले ही बड़े हो गए है। बेटे को कुलदीपक और बेटी को पराई समझने वाले समाज में बुजुर्गों ने जब बच्चों का बचप

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छोड़ो बेकार की बातों में कहीं बीत न जाए रैना

24 अक्टूबर 2017
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‘कुछ तो लोग कहेंगे, लोगों का काम है कहना, छोड़ो बेकार की बातों में कहीं बीत न जाए रैना’ यह कहने या सुनने को तो सिर्फ एक हिन्दी फिल्म का बहुत ही दिलकश व प्रसिद्ध गाना है. इस गाने में जिन लोगों का जिक्र हुआ है, उन्हीं लोगों की वजह से आज हम अपने घर को घर नहीं बना पा रहे है.

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उच्चारण दोष से हृषीकेश बना ऋषिकेश

9 नवम्बर 2017
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ऋषिकेश हिमालय की पर्वत श्रृंखला में मणिकूट पर्वत की तलहटी में गंगा तट पर बसा एक प्राचीन नगर है. ऋषिकेश उच्चारण दोष के चलते हृषीकेश का परिवर्तित रूप है. हृषीकेश का अर्थ है हृषीक (इंद्रिय) को जीतकर रैभ्य मुनि ने ईश (इंद्रियों के अधिपति विष्णु

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उसकी कमीज मेरी कमीज से सफेद कैसे

11 नवम्बर 2017
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एक विज्ञापन की बहुचर्चित लाइन ‘उसकी कमीज मेरी कमीज से सफेद कैसे’ बहुत कुछ याद दिलाती है. सामने वाला मुझसे बेहतर कैसे? हमेशा मस्त रहता है. यह सोचकर जब भी अपने अतीत की ओर झांकने की कोशिश की, पुरानी यादें रहरह रूला देती है. काश! थोड़ी सी और मेहनत की होती, जरा सी कमी ही रह गई थी, तब जरा सा ध्यान दिया हो

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पद्मावती के बहाने याद आयी गौरवगाथायें

19 नवम्बर 2017
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मान लीजिए पदमावती रिलीज गई है. लेकिन उसको देखने के लिए न कोई टिकट खरीदता है और न ही टेलीविजन पर फ्री में देखता है. तब टिकट न बिकने से फिल्म के बॉक्स ऑफिस पर धराशाई होने के साथ-साथ टीवी पर दिखाने वालों की टीआरपी भी गिर जाएगी. तब ऐसे में संजय लीला भंसाली और दीपिका का हा

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बंद मुठ्ठी लाख की खुली तो खाक की

26 नवम्बर 2017
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मोदी युग के बाद राहुल युग. मतलब अच्छे दिन आने तय हैं. वजह साफ है राष्ट्रीय राजनीति में कांग्रेस भाजपा और फिर कांग्रेस. भाजपा में भले ही समर्पण, त्याग और वफादारी की कमी हो

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चूहा मस्त और शेर सदमे में

6 दिसम्बर 2017
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कुत्ता भौंका भौं-भौं, बिल्ली चिल्लाई म्याऊं- म्याऊं. चूहा दहाडा- कौन है बे, जो हल्ला मचा रखा है. यह नजारा देख रहा शेर सकपकाता हुआ दुम दबाकर भाग निकला. रास्ते में हांपते हुए भागते शेर को देख खरगोश ने पूछा, क्या बात है मालिक. शेर ने सारा नजारा कह सुनाया. तब खरगोश बोला, सर ये चूहा शहर में एक नेता जी की

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अब क्या टाईपिंग करेंगे हम

12 दिसम्बर 2017
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बात दिव्यांग बच्चों को कम्प्यूटर सिखाने की हो या संस्कृत के छा़त्रों को कम्प्यूटर शिक्षा की या फिर प्रोफेशनल कोर्स में मीडिया स्टूडेंट्स को ट्रेंड करने की. मेरा इनसे गहरा नाता रहा है. इनको सिखाने के दरम्यान मैंने अनुभव किया कि जहां दिव्यांग बच्चों ने चीजों को एकाग्रता से समझने की कोशिश की, वहीं संस्

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श्री भरत मंदिर इंटर कॉलेज और हीरक जयंती

27 जनवरी 2018
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ऋषिकेश स्थित श्री भरत मंदिर इंटर कॉलेज इस वर्ष अपनी हीरक जयंती मना रहा है. इस कॉलेज में ही मैंने सीखा कि जिंदगी में मुसीबतों से कैसे निपटा जाता है और मुसीबत को बुलावा कैसे दिया जाता है. और तो और अपनी गलतियों के लिए दूसरों को कैसे आरोपित किया जाता है. लगभग हर स्टूडेंट्स के

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बच्चे नहीं, बिगड़ रहे है बड़े

31 जनवरी 2018
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आज का ज्वलंत सवाल 'बच्चे बिगड़ रहे है? जिसने हर किसी को परेशान कर रखा है कि जबकि सच तो यह है कि बच्चे नहीं अभिभावक बिगड़ रहे हैं. क्योंकि हमारी आदत है कि अपनी कमियां न देखकर सीधे दूसरे पर आरोप लगाने की रही है. अभिभावक और टीचर्स के बीच फं

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दोष खुद का और इल्जाम ईवीएम पर

19 मार्च 2018
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भाजपा चार सीट हारे या विरोधी गठबंधन से 400 सीट जीते. अमित शाह जाने या राहुल गांधी, ये उनकी टेंशन है. अपने आप देख लेगें. यहां तीन में न तेरह में और लगा पडा हूं ऐसे, जैसे प्रधानमंत्री मुझे ही बनना है. यहां खुद को संभालना महाभारत से भी बडा है और बाते देश- दुनिया की कि पाक पर हमला करते ही चीन सेना हटा ल

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अपनी ढपली-अपना राग, फिर एक कैसे ?

22 मार्च 2018
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सब झूठ बोलते है कि हम सब एक है। कोई एक नहीं है, सब अलग-अलग है, सबकी अपनी ढपली-अपना राग है। कोई उत्तर तो कोई दक्षिण ध्रुव बनने को बेताब है। कभी देखी है एकता (आजादी से पहले की बात अलग है) अगर हम सब एक होते है तो क्या हमारे देश में आतंकवाद अपनी जड़े मजबूत कर पाता। क्या भ्रष्टाचार चरम सीमा पर पहुंच पाता।

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जब सवाल को मिल जाए मोक्ष

27 मार्च 2018
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जब हंगामे में सवालों का वजूद तक ख़त्म हो जाता हो, तब जवाब कहां से मिलेगा. सवालों के चक्रव्यूह में घिरी जिंदगी, महाभारत के अभिमन्यु सरीखी हो गई है. न तो अभिमन्यु चक्रव्यूह तोड़ पाया और न ही जिंदगी को सवालों के जवाब मिलने वाले है. बात सीधी सी है सवाल होते ही जब हंगामा हो जाता है, तब जवाब से पहले सवाल

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बड़ों की जिद और बचपन का भविष्य

7 अप्रैल 2018
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सब घालमेल है. सरकारी स्कूलों में बच्चे नहीं हैं. सरकारी स्कूल बंद कर रही है. एक्सपर्ट टीचर को यहां-वहां समायोजित कर रही है. दूसरी ओर निजी स्कूल हैं. फीस लगातार बढ़ाते हैं. अपनी मनमर्जी से सिलेबस तय करते हुए बुक्स और अपने मनमाफिक बुक सेलर से बुक खरीदने को कहते हैं. पैरेंट्स मान रहे हैं निजी स्कूल में

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लावारिस बच्चों का अपनी मां के नाम खत

23 मई 2018
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जा मां, जी ले जिंदगी जी भर के. माफ किया तुझको. जिस दुनिया के लोकलाज के भय से तूने हमको ठुकराया है, उसी दुनिया ने हमको पलकों पर बैठा दिया है. हमको तुझसे न कोई गिला है और ना ही कोई शिकवा. हमको फेंका भी तो कूड़े के ढेर में. वह तो मजदूर अंकल बहुत अच्छे थे, जिन्होंने हमारी रोने की आवाज सुनकर हल्ला मचा दिय

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अंधविश्वास से अच्छा है खुद पर विश्वास

9 जुलाई 2018
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जहां दूसरे पर अंधविश्वास गर्त में ले जाता है, वहीं खुद पर विश्वास सफलता के नए रस्ते दिखाता है. अभी हाल में नई दिल्ली में बुराड़ी में मृत पिता से मिलने के अंधविश्वास में 11 लोगों ने फांसी लगा ली. ये कैसा भरोसा है. भला कोई आज तक मरने के बाद जिंदा हुआ है. एक बार मर गए तो मर गए. वही दूसरी ओर थाईलैंड की च

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मासूम बचपन और हैवानियत का दंश

21 अगस्त 2018
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मासूमों पर वहशियों की नजर क्या पडी. बचपन बर्बाद हो गया. इंसानियत शर्मसार हुई तो संस्कारों पर भी सवाल खड़े हो गए. बाल उत्पीड़न के बढ़ते आंकड़े यह सोचने पर बाध्य करते हैं कि विश्व की सर्वश्रेष्ठ संस्कृति में कहां चूक हो गई कि भगवान स्वरूप बच्चे ही हैवानों का शिकार होने लगे. कभी अपनों की तो कभी गैरों क

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गुरुओं का सम्मान क्यों?

4 सितम्बर 2018
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शिक्षक दिवस- बड़ी दुविधा में डाल देता है. पुराने समय की बात और थी, जब गुरुकुल वाली व्यवस्था थी. विद्या अर्जन के लिए गुरु की शरण में जाना होता था. समय बदला, व्यवस्था बदली. अब सब कुछ आपकी इच्छा पर निर्भर करता है. आपके पास धन है तो गुरु स्वयं आपके द्वार पर पहुंच जाएंगे. वरना गुरु के दरवाजे आपके लिए हमे

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फेलियर को अगली क्लास में क्यों नहीं

10 अक्टूबर 2018
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कहने वाले गलत कहते है कि जिंदगी में हार-जीत के कोई मायने नहीं है. हार, हार होती है और जीत, जीत. हर किसी को जीत का ही आशीर्वाद दिया जाता है. अगर हार-जीत का कोई मतलब नहीं है, तो फिर हार की दुआएं क्यों नहीं दी जाती. विनिंग मेडल हारने वालों के गले में क्यों नहीं डाला जाता. फेल होने वालों को अगली क्लास म

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भाव देने की जरूरत ही क्या है?

20 अक्टूबर 2018
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किसी भी बात को तभी भाव मिलता है जब उसे भाव देने वाले देते हैं. भाव नकारात्मक हो या सकारात्मक, दोनों ही स्थितियों में भाव खाने वाला अगर भाव नहीं खाएगा तो क्या करें. ऐसी स्थिति में अच्छा यह है कि भाव दिया ही न जाए. मतलब पूर्ण बहिष्कार. भला जिंदगी भी किसी के रुके से रुकी है क्या. जिंदगी को जहां तक बहना

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कर्तव्य- नैतिकता के बीच जिम्मेदार कौन?

21 अक्टूबर 2018
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अमृतसर हादसा: पंजाब के अमृतसर में दशहरे पर बड़ा हादसा हो गया. रावण दहन के दौरान मची भगदड़ के कारण 61 लोग ट्रेन से कट गए. वे रेल की पटरी पर थे और रेल इतनी रफ्तार में आई कि वे संभल भी नहींसके. घटना में 150 से ज्यादा लोग घायल हैं. हादसे की भयावहता का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि पटरी के करीब 20

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व्यक्ति नहीं विचार चुनिए

7 अप्रैल 2019
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जब इलेक्शन हाई लेवल का हो तो कैंडिडेट को कौन पूछता है. व्यक्ति नहीं विचार चुनिए. विश्व की सबसे बड़ी लोकतांत्रिक व्यवस्था में एक अकेला थक जाएगा, इसलिए संगठित रूप से चुनाव लड़ने वाले एक विचारधारा के व्यक्तियों का चुनाव जरूरी है. कहीं की ईंट कहीं का रोड़ा भानुमति ने कुनबा जोड़ा वाली विचारधारा का जीतना

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आप-मैं और दो शब्द

24 अप्रैल 2019
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दो शब्द लिखने के चक्कर में क्या-क्या लिखा जाता है खुद को भी समझ में नहीं आता. जब तक लिखने का फ्लो बनता है. तब तक सोच गायब हो जाती है और जब सोच होती है तब शब्द नहीं मिलते. और जब लिखने की पिनक में शब्दों की खुराक मिलती है तब लिखा जाता है उसके बारे में तो पाठक ही जाने लेकिन खुद को जो संतुष्टि मिलती है,

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टीआरपी के लिए खुद सुधर जायेगे चैनल्स

26 अप्रैल 2019
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इलेक्ट्रॉनिक मीडिया पर गौरवशाली भारतीय संस्कृति को बिगाडऩे का आरोप लगता आया है, जबकि यह सच नहीं है, संस्कृति बिगाडऩे के लिए मीडिया से ज्यादा आम जनता दोषी है. याद कीजिए कभी दूरदर्शन ने अपनी संस्कृति के अनुरूप रामायाण, महाभारत, सामाजिक व्यथा को दर्शाते हमलोग, बुनियाद धाराावाहिक शुरू किए थे. रामायाण के

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जीत जाते तो विराट, हारे तो धोनी: World Cup 2019

12 जुलाई 2019
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वाह भाई वाह ...जीत जाते तो विराट- रोहित. हार गए तो मिस्टर कूल. एक्सपीरियंस के आधार धोनी की बेहतरीन इनिंग की बदौलत ही टीम इंडिया न्यूजीलैंड के खिलाफ सेमीफाइनल में जीत के नजदीक तक पहुंची. मिस्टर कूल पर उंगली उठाने वालों को समझना चाहिए वर्ल्ड कप में टीम इंडिया पार्टिसिप

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ओ रे मांझी ले चल मुझे गंगा पार...

13 जुलाई 2019
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ओ रे मांझी ले चल ओ रे मांझी ले चल मुझे गंगा पार. क्योंकि गंगा तट पर ऋषिकेश में अंग्रेजों के जमाने में बने लक्ष्मण झूला पुल को आवाजाही के लिए सुरक्षा की दृष्टि से बंद कर दिया गया है. कहा जा रहा है कि यह ,प

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आखिर क्यों ना हो पलायन?

2 अगस्त 2019
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मेरे गांव के इस रास्ते से जो कदम शहर की ओर निकले वो लौटकर वापस नहीं आए, जो आए भी तो कुछ इस तरह आए, कि जिनको आने से ज्यादा वापस लौटने का जुनून था. वहां जहां मेहनत तो थी लेकिन बच्चों की परवरिश के लिए पर्याप्त साधन मौजूद थे. तब ऐसे में दूर स्थित इस पहाड़ी गांव में क्या रखा था जहां ना पीने को पानी, ना ब

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मासूमों की मौत का गुनहगार कौन?

10 अगस्त 2019
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मासूम बच्चों की बेवक्त मौत के असली गुनाहगारों की तलाश के लिए पत्ते झाड़ने से फायदा नहीं, जड़ खोदनी होगी. ईमानदारी से मंथन करने पर मालूम चल जाएगा कि असली गुनाहगार हम खुद हैं. जानते- समझते हुए भी अपने मासूमों को कुछ पैसे बचाने के फेर में जबरन स्कूल वैन में बैठाते हैं और हादसे के बाद आसानी से कह दिया ज

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अपने तो अपने होते हैं

29 अगस्त 2019
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वक्त के साथ-साथ इंसान इतना बदल गया है कि उसको अपनी परछाई से भी डर लगने लगा है. पता नहीं कौन सा डर उसके दिल में घर कर गया है कि वह घंटों इंटरनेट पर उपलब्ध सोशल नेटिवर्किंग साइट्‌स में परायों को अपना बनाने के लिए सिर खपाता रहता है. जबकि दूसरी ओर उसके अपने रिश्तेदार, दोस्त उससे बात करने और मिलने के लिए

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सेल्फी विद हेमंत छाबड़ा

4 सितम्बर 2019
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यह है हेमंत छाबड़ा. सामान्य बच्चों से थोड़ा हटकर. इसलिए ये ऋषिकेश स्थित ज्योति स्कूल (विशेष बच्चों के लिए) में स्कूलिंग के लिए जाते थे. स्कूल में अधिकांश समय गुस्से में रहने वाले हेमंत बाहर से जितने सख्त दिखते है, अंदर से उतने ही अच्छे दिल के है. सामान्य स्कूल्स के नखरे और ईश्वर की विशेष कृपा इन पर

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डेंगू का डंक और अजय की जंग

18 सितम्बर 2019
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कौन कहता है, डेंगू मरता नहीं है. बस एक कोशिश ईमानदारी से होनी चाहिए. इन दिनों डेंगू, मलेरिया और वायरल पीड़ित मरीजों की संख्या लगातार बढ़ रही है। सरकारी एवं निजी नर्सिंग होम मरीजों से अटे पड़े है। नर्सिंग होम वाले मरीजों से इलाज के नाम पर मनमाने रकम वसू

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छोटी सोच और पैर की मोच

30 सितम्बर 2019
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छोटी सोच हो या पैर की मोच, कभी आगे नहीं बढ़ने देती. जहां छोटी सोच के चलते नीयत डोलने में देर नहीं लगती,वहीं पैर की मोच अपाहिज बना देती है. बाकी बची दुनिया, जिसके पीछे पड़ जाए, तो ऐसे पड़ती है कि जैसे खुद दूध की धुली हो. किसी काम की सकारात्मक या नकारात्मक समीक्षा हो सकती है. लेकिन किसी के अस्तित्व को

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मानव मन की बात ही क्या?

4 अक्टूबर 2019
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मानव मन की बात ही क्या, पता नहीं कब कौन सी बात उसके मन को भा जाए और कब कौन की बात उसके दिल में घर कर जाए, कहां नहीं जा सकता। कब वह आकाश की ऊंचाइयों को छूने की कल्पना करने लगे और कब वह धड़ाम से जमीन पर आ गिरे। आज तक कोई भी मानव मन की थाह तो क्या, उसके एक अंश को भी नहीं जान पाया। आपका प्रिय आपकी कौन सी

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छात्र पुलिस और पॉलिटिकल मोक्ष

18 दिसम्बर 2019
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यूनिवर्सिटी कैंपस में पुलिस प्रवेश गलत है तो छात्रों का राजनीति में दखल क्यों? तटस्थ रहने का विकल्प भी होता है. राजनीतिक नायकों की पटकथा जब छात्र आंदोलनों में ही लिखी जाती हो, तब पुलिसिया सीन तो बन ही जाता है. अब कहने-सुनने और बहसबाजी के लिए तर्क- वितर्क हो सकते है. बात जब विचारधाराओं के टकराव की हो

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हींग लगे न फिटकरी, रंग भी चोखा

12 फरवरी 2020
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एक राजा था। उसका मंत्री बहुत ही होशियार और अड़ियल था। दरबार के कई सभासद मंत्री के खिलाफ षड्यंत्र रचते रहते थे। एक बार राज्य के एक नगर में सत्ता रोग फ़ैल गया। उस बीमारी से राजा बहुत परेशान हो गया। ना दिन को चैन, ना रात को आराम। वो राज्य को देखे या उस नगर को। राजा की परेशानी को देखते हुए, उसके मंत्री ने

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कोरोना का कहर और आपसी व्यवहार

16 जुलाई 2020
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कोरोना काल में ऐसा भी क्या आर्थिक संकट की एक या दो महीने का बेकअप भी नहीं है। मार्च से पहले करोड़ों-अरबों का बिज़नेस करने वाले भी छाती पीट रहे है कि धंधा चौपट हो गया है। सोचने वाली बात है कि जब हाई क्लास बिज़नेस करने वालों के ये हाल है तो उन बेचारे दैनिक दिहाड़ी वालों का क्या हाल होगा। जिनमे से ज्यादातर

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कोरोना और यमराज की चिंता

22 जुलाई 2020
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कोरोना वायरस की धमाकेदार पारी नॉन स्टॉप चल रही है. नीम-हकीम और ताबीज वाले बाबाओं की तो छोड़िए पूरा का पूरा मेडिकल साइंस पसीने से तरबतर है. कोरोना को क्लीन बोल्ड करना तो दूर की बात फिलहाल तो बाउंड्री पर लपकने के भी कोई आसार नजर नहीं आ रहे है. नीचे वाले हो या ऊपरवाला सभी लॉकडाउन है. यमराज बोले, सुनो च

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ज़िदबाजी और हिंदुस्तान

12 अगस्त 2020
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एक समुद्री यात्री वास्कोडिगामा 20 मई 1498 को यूरोप से मसाले का व्‍यापार करने के लिए हिंदुस्तान के कालीकट बंदरगाह पर क्या पहुंचा कि 15 अगस्त 1947 को विश्व की सोने की चिड़िया के रूप में प्रसिद्ध हिंदुस्तान भारत-पाकिस्तान बन गए. सच मानिए ब्रितानी हुकूमत यदि जुल्म की इंतेहा पार ना करती तो हिंदुस्तान बुल

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सन्नाटा

14 नवम्बर 2021
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<p><br></p> <figure><img src="https://shabd.s3.us-east-2.amazonaws.com/articles/611d3d5142f7ed561c88

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