भाजपा चार सीट हारे या विरोधी गठबंधन से 400 सीट जीते. अमित शाह जाने या राहुल गांधी, ये उनकी टेंशन है. अपने आप देख लेगें. यहां तीन में न तेरह में और लगा पडा हूं ऐसे, जैसे प्रधानमंत्री मुझे ही बनना है. यहां खुद को संभालना महाभारत से भी बडा है और बाते देश- दुनिया की कि पाक पर हमला करते ही चीन सेना हटा लेगा. ट्रंप इजरायल और जापान की सेना लेकर पीएम मोदी संग सीमा पर खूंटा ठोक देगे. अपना काम है पढते- लिखते हुए अपने काम पर फोकस करना. अपने पास तो कोई अवार्ड भी नहीं है कि वापस किया जाए और न ही अपने देश में डर लगता है. पीएम मोदी और सेना है ना. फिजूल की ड्रामेबाजी से अच्छा है, अपनी योग्यतानुसार काम करना. गड्डे खोदने से अच्छा तो पकोडे ही तल लेता, लेकिन क्या कर सकता हूं थोडा स्कूल- कालेज की शक्ल देख ली तो दैनिक जागरण आईनेक्स्ट में ग्राफिक डिजाइनर होते हुए ब्लागिंग का शौक सिर चढकर बोलता है. इतिहास का छात्र होने के नाते राजनीति पसंद ही नहीं आई. आ जाती तो पीएम मोदी संग प्लानिंग करता. क्योंकि राजनीति में जब कुछ भी हो सकता है, तब मुझे भी कोई दिक्कत नहीं होती. आजकल एक नया ट्रेंड चल पड़ा है चुनाव में हारे अपने कर्मों से और दोष लगा दिया इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन पर. लगभग 70 साल तक राज करने वाली पार्टी ने बैलेट पेपर की जगह पर मशीन के प्रयोग शुरू करवाया और अब जब चुनाव तो चुनाव, उप चुनाव तक में हारने लगी, तो कह रही है, मशीन ख़राब है, दोबारा बैलेट पेपर के जरिये चुनाव होना चाहिए. भला ऐसा कहा होता है. जनता को मनरेगा में गड्ढे खुदवाते-खुदवाते खुद गिर पड़े तो मशीन का क्या दोष. जिस जनता ने मशीन पर हरा दिया, अगर उसी जनता ने बैलेट पर भी हरा दिया तो क्या होगा. दरअसल दिक्कत वोटिंग मशीन में नहीं, आपकी नीतियों और उन पर अमल करने की प्रक्रिया की है, उसको दुरुस्त करने की जरुरत है, न वोटिंग को बैलेट पेपर पर करवाने की. खैर छोड़िये पार्टी हाई कमान और चुनाव आयोग का मामला है, वह खुद इससे निपट लगे. हम तो अपना काम करते है.