एक विज्ञापन की बहुचर्चित लाइन ‘उसकी कमीज मेरी कमीज से सफेद कैसे’ बहुत कुछ याद दिलाती है. सामने वाला मुझसे बेहतर कैसे? हमेशा मस्त रहता है. यह सोचकर जब भी अपने अतीत की ओर झांकने की कोशिश की, पुरानी यादें रहरह रूला देती है. काश! थोड़ी सी और मेहनत की होती, जरा सी कमी ही रह गई थी, तब जरा सा ध्यान दिया होता तो आज मेरा व्यक्तित्व (कमीज) भी बहुत उज्जवल होता. मस्ती के आलम में भूल गए थे कि हमको भी बड़ा होना है या युवावस्था का घमंड था कि हमसे बेहतर कौन? वर्तमान में सब कुछ हमारी आंखों के सामने आ गया. हम अपनी आदत ‘गलतियों से सीख न लेने’ के कारण हमेशा सामने वाले के नकारात्मक पक्ष की चर्चाओं में मशगूल रहे और सकारात्मक सोच रखते हुए भी नाकाम साबित हो गए. बचपन में बुने गए सपने धीरेधीरे बिखरने लगे और बिखरते सपनों के साथ टूटती जा रही है हमारे मांपिता की उम्मीदें. माना कि बंद आंखों के सपने कभी सच नहीं होते, पर हमने तो खुली आंखों से सपनों को देखा था. पर यह भूल गए थे उनको संभालने और सच करने की जिम्मेदारी हमारी स्वयं की ही है. और अब अब नए सपने बुनने से भी डर लगता है. हमारे सामने वाला अर्जुन की तरह अपने लक्ष्य पर केंद्रित रहते हुए तेजी से आगे निकल गया. अब तो आलम यह है कि अपनी गलतियों से सीखने और समझने का समय तो हमारे पास बहुत है, पर उन उज्जवल भविष्य के रास्ते जिंदगी की भुलभुलैया में कही गुम हो गए. आज अगर वह रास्ते मिल जाए तो मुकाम पर पहुंचना संभव नहीं, क्योंकि समय पर हमने ही अपने कदमों को उस ओर उठने से रोका था. और अब जब ठोकर खाकर होश संभाला तो देखा रास्ते ही बंद हो गए. अब इतना ही कह सकते है कि उसकी कमीज मेरी कमीज से ज्यादा उज्जवल है.