यूनिवर्सिटी कैंपस में पुलिस प्रवेश गलत है तो छात्रों का राजनीति में दखल क्यों? तटस्थ रहने का विकल्प भी होता है. राजनीतिक नायकों की पटकथा जब छात्र आंदोलनों में ही लिखी जाती हो, तब पुलिसिया सीन तो बन ही जाता है. अब कहने-सुनने और बहसबाजी के लिए तर्क- वितर्क हो सकते है. बात जब विचारधाराओं के टकराव की हो, तब पालिटिकल पावर का यूज होता ही है. हर बात में पुलिसिंग पर सवाल उठाना भी जायज नहीं है. हर आंदोलन पूर्ण रूप से राजनीति से प्रेरित होता है, वादे-दावे चाहे कुछ भी कर लीजिए. स्टूडेंट्स राजनेताओं के लिए रामबाण दवाई का काम करते हैं. क्योंकि किसी भी आंदोलन को बिना वानर सेना के मोक्ष नहीं मिलता है. मस्ती, जोश, हौसले और बुलंद इरादों वाले स्टूडेंट्स, ना घर की चिंता ना भविष्य का रोना, जिसके साथ हो लिए उसको मुकाम पर पहुंचा कर ही दम लेते हैं. किसी इबारत को पन्ने से मिटा भी दिया जाए तो उसका अक्स हमेशा ही बना रहता है. इसलिए अपना पॉलीटिकल भविष्य तलाशने वाले कॉलेज कैंपस में कोरे दिल और दिमाग पर कब्जा करते रहते हैं. शिक्षा को राजनीति से दूर करने की बात हो या गैर राजनीतिक संगठन की, लेकिन यह सत्य है कि बिना पॉलीटिकल पावर के किसी भी संगठन या संस्था का अस्तित्व ज्यादा दिनों तक नहीं होता है. यही वजह है कि हर छोटी-बड़ी पॉलिटिकल पार्टी की छात्र इकाई होती ही है. लोकतांत्रिक व्यवस्था में जब तक राजनीतिक दलों का अस्तित्व रहेगा तब तक यूनिवर्सिटी के कैंपस हो या कॉलेज से राजनीतिक गतिविधियों को समाप्त नहीं किया जा सकता है. पॉलीटिकल पावर हासिल करने के लिए जिस करंट की जरूरत होती है वह यूनिवर्सिटी कैंपस में ही जनरेट होता है.
जेपी आंदोलन वह आंदोलन रहा, जिसने पूरे भारत की राजनीति की दिशा बदल दी. 'जेपी आन्दोलन' 1974 में बिहार के विद्यार्थियों द्वारा बिहार सरकार के अन्दर मौजूद भ्रष्टाचार के विरूद्ध शुरू किया गया था. बाद में इस आंदोलन का रुख केंद्र की इंदिरा गांधी सरकार की तरफ मुड़ गया. इस आंदोलन की अगुवाई प्रसिद्ध गांधीवादी और सामाजिक कार्यकर्त्ता जयप्रकाश नारायण ने की थी जिन्हें जेपी भी कहा जाता था. इस आंदोलन को 'संपूर्ण क्रांति आंदोलन' भी कहा जाता था. यह तो एक बानगी भर है. मात्र 6 वर्ष की अवधि में उत्तराखंड राज्य का निर्माण कभी नहीं होता अगर 1994 में 33% आरक्षण के विरोध में छात्र सड़कों पर नहीं उतरते.