मासूम बच्चों की बेवक्त मौत के असली गुनाहगारों की तलाश के लिए पत्ते झाड़ने से फायदा नहीं, जड़ खोदनी होगी. ईमानदारी से मंथन करने पर मालूम चल जाएगा कि असली गुनाहगार हम खुद हैं. जानते- समझते हुए भी अपने मासूमों को कुछ पैसे बचाने के फेर में जबरन स्कूल वैन में बैठाते हैं और हादसे के बाद आसानी से कह दिया जाता है कि स्कूल वैन ओवरलोडेड थी. यह स्कूल वैन में हादसे के बाद क्यों ओवरलोडेड नजर आती है. फिर हम एक सशक्त और जिम्मेदार व्यक्ति को नहीं चुनते हैं. लोकतंत्र में सरकार हम बनाते हैं और सरकार व्यवस्था देखती है. यह कैसी व्यवस्था है जहां मासूम ही सुरक्षित ना हो? किसी भी गलती के लिए दूसरे को दोषी ठहराना सबसे आसान होता है. हर हादसे के बाद जागने वाली सरकार पहले क्यों जागेगी. जब हमने सब कुछ जानते सोचते समझते हुए भी ईमानदारी से अपना वोट नहीं किया तब. चुनाव के वक्त करोड़ों रुपया खर्च कहां से होता है और उसकी पूर्ति कहां से की जाती है कभी इस बारे में सोचा है क्या? इस करोड़ों रुपए की वसूली के लिए हमारे चुने प्रतिनिधि इलेक्शन के बाद होने वाले विकास कार्यों में घालमेल से ही करते और करवाते हैं. हम खुश हैं कि सरकार हमारी है . जब प्राकृतिक जनित हवा-पानी भी फ्री में ना मिलता हो तब वोट ख़रीदने के लिए करोड़ों रुपया कहां से आता होगा. वोट ख़रीदने के कई रूप हो सकते हैं और उसी का नतीजा है कि हादसे होते रहते हैं जांच चलती रहती है और बस यूं ही सब कुछ चलता रहता है. प्राकृतिक और मानव जनित आपदाओं में अंतर को समझने की जरूरत है. यह भी समझना होगा कि हादसों की पुनरावृत्ति क्यों होती है. सिर्फ चालान और निलंबन से व्यवस्था को नहीं सुधारा जा सकता है. सरकार चाहे तो कुछ भी कर सकती है और सरकार बनाने वाला होता है एक आम आदमी. वही आदमी जो ईमानदारी से अपनी सरकार को नहीं चुनता है और फिर भी भुगतता है अपने वोट के नतीजे. हां अपवाद हो सकते हैं, लेकिन इतने भी नहीं कि वह पूरी व्यवस्था को बदल सके. वक्त रहते गांव को गांव नहीं बनाया गया तो शहर भी शहर नहीं रहेंगे. वजह साफ है गांव में व्यवस्था नहीं है और शहर में सब कुछ अव्यवस्थित है. बस यही पर सोच बदलने की जरूरत है. रहा होगा कभी वह दौर जब राजा अच्छा या बुरा होता होगा. लोकतांत्रिक व्यवस्था में राजा भी हम हैं और प्रजा भी. जैसा राजा हम बनाएंगे वैसी ही व्यवस्था होगी?