दिव्यांग होने के बावजूद मैं सिर उठा कर जी रहा हूं, पढ़ा-लिखा हूं, लेकिन आज जो घटना मेरे साथ घटी है, मुझे पहली बार अपने दिव्यांग होने के कारण रोना आया. इंसानियत शायद मर चुकी है. शिकायत करने पर एक बस के ड्राइवर-कंडक्टर ने हालांकि मुझसे माफी मांगी, मैंने उन्हें माफ भी कर दिया, लेकिन इस घटना ने मुझे बहुत दर्द दिया और यह सब देवभूमि में हुआ."
यह कहना है सीनियर सिटीजन दिव्यांग जगदीश कोहली का. जो रूडकी से राजधानी देहरादून में आए. यहां उनको सिटी की लाइफ लाइन कही जाने वाली सिटी बस के चालक और कंडक्टर ने वो दर्द दिया, जिसकी उम्मीद कम से कम देवभूमि में तो कोई नहीं करता. ऐसे में सवाल उठना लाजिमी है क्या सिर्फ दिव्यांग नाम देने भर से ही जिंदगी खुशनुमा हो जाती है. उसके लिए समाज का संवेदनशील होना भी जरूरी है. भले ही सिटी बसों में शहर का दिल धड़कता हो, लेकिन रूड़की से देहरादून आए दिव्यांग सीनियर सिटीजन के दिल को ठेस भी सिटी बस की वजह से ही लगी. दो घंटे बारिश में भीगते हुए वो बस में बैठने की गुहार लगाते रहे, लेकिन इंसानियत को रौंदते हुए किसी भी बस कंडक्टर ने उनको बस में नहीं बैठाया और उनको उम्र के इस पड़ाव पर सोचने के लिए मजबूर कर दिया कि पैर जिनका साथ नहीं देते है, उनको कोई कंधा भी नहीं देता. भले ही देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी कहते रहे कि दिव्यांग दिव्य अंगों वाले होते है, उनका सम्मान होना चाहिए. भले ही सरकारी ऑफिसों में उनके लिए रैंप बना दिए गए हो, बसों में सीट आरक्षित कर दी हो. लेकिन रैंप तक पहुंचने और सीट पर बैठने से पहले ही लाइफ लाइन दिव्यांगों का साथ छोड़ दें तो सरकार की दिव्यांगों के प्रति सारी कवायद पानी-पानी हो जाती है. यह सिर्फ एक शख्स की कहानी नहीं है, बल्कि यह नजरिया है उस समाज का जो दिव्यांगों के प्रति आज भी कुंठित मानसिकता को प्रदर्शित करता है. बुलंद हौसले वाले दिव्यांगों को दया नहीं, सहयोग की जरूरत होती है.