किसी भी बात को तभी भाव मिलता है जब उसे भाव देने वाले देते हैं. भाव नकारात्मक हो या सकारात्मक, दोनों ही स्थितियों में भाव खाने वाला अगर भाव नहीं खाएगा तो क्या करें. ऐसी स्थिति में अच्छा यह है कि भाव दिया ही न जाए. मतलब पूर्ण बहिष्कार. भला जिंदगी भी किसी के रुके से रुकी है क्या. जिंदगी को जहां तक बहना है, वहां तक बहेगी ही. बेमतलब बेमकसद सामने वाले को भाव देने की जरूरत ही क्या है. कहा जाता है ना रस्सी में जितना बल दो उतना ही ऐंठने लगेगी. पाकिस्तान भाव नहीं खाएगा तो क्या करेगा, हर मोर्चे पर पाकिस्तान तोप लगाए बैठा है, और हम चले उसके साथ क्रिकेट खेलने. क्या जरूरत है उसके साथ क्रिकेट खेलने की बाकी और देश भी तो है. लेकिन नहीं, उसी के साथ खेलना है. सर कटा लेंगे, कोई बात नहीं लेकिन क्रिकेट में जीत गए तो समझो पाक फतह. इधर सबरीमाला मंदिर में महिलाओं को प्रवेश पर प्रतिबंध है. तब महिलाओं को भी बहिष्कार कर देना चाहिए. लेकिन नहीं, वहीं जाना है. और भगवान भी तो हैं, जब ऊपर वाला एक है तब वहां किसी भी रास्ते से जाया जा सकता है, ऐसे में फिजूल की टेंशन लेने का क्या फायदा. अब रही बात मी टू की. चलिए पहले कभी आवाज नहीं निकली, कोई बात नहीं, लेकिन अगर चिंगारी से आग भड़क गई तो क्या दिक्कत है, यह तो विश्वास है. भरोसे भर की बात है, अगर सामने वाले ने नैतिकता के आधार पर गलती मानी या नहीं मानी यह जांच का विषय हो सकता है लेकिन बवाल जैसी कोई बात नहीं है. शुक्र मनाइए उस दौर में एंड्रॉयड फोन और सीसीटीवी कैमरा होते तो आज ना जाने कितने धड़ाम हो गए होते. मी टू अभियान की सफलता पर इतराने वालों को मालूम होना चाहिए कि अभी कुछ वक्त पहले ही अन्ना ने भ्रष्टाचार के खिलाफ जो अभियान छेड़ा था, वैसा पिछले 50 वर्षों के दौरान कोई अभियान नहीं था और ना ही हाल फिलहाल में कोई और अभियान नजर आता है. मीडिया का तमाशा है. आज पर्दा उठा है कल गिर जाएगा क्या भरोसा है. उसको सिर्फ टीआरपी से मतलब है वह टीआरपी के लिए कुछ भी करेगा. जब बात टीआरपी की हो तब रिश्तो की क्या अहमियत. नैतिकता से कोसों दूर होते जा रहे टीवी सीरियल भी इशारा करते हैं कि हमारी सोच आखिर कहां जा रही है.