सब घालमेल है. सरकारी स्कूलों में बच्चे नहीं हैं. सरकारी स्कूल बंद कर रही है. एक्सपर्ट टीचर को यहां-वहां समायोजित कर रही है. दूसरी ओर निजी स्कूल हैं. फीस लगातार बढ़ाते हैं. अपनी मनमर्जी से सिलेबस तय करते हुए बुक्स और अपने मनमाफिक बुक सेलर से बुक खरीदने को कहते हैं. पैरेंट्स मान रहे हैं निजी स्कूल में अनुभवहीन टीचर बच्चों को नहीं पढ़ाते हैं. स्कूल बच्चों की आड़ में पैरेंट्स पर दबाव बनाते हैं. स्कूल में कम और घर पर ज्यादा काम करना पड़ता है. लेकिन जिद्दीपन देखिए न स्कूल मान रहे हैं ना पेरेंट्स. जहां सरकार बच्चे ना होने की वजह से स्कूलों को बंद कर रही है वही निजी स्कूलों में ही बच्चों को पढ़ाने की चाहत वाले पेरेंट्स को निजी स्कूल और बुक्स पब्लिकेशंस हाउस वाले जम कर दोहन कर रहे हैं. सरकारी स्कूल में बच्चे हो तो टीचर्स के लिए सरकार पर दबाव बनाया जा सकता है. बनाना भी होगा. हर 5 साल में सरकार बदलती है. लेकिन हालात नहीं. तब किस को दोष दे सरकार को या सरकार बनाने वालों को. निजी स्कूल पैसा कमाने के लिए ही खुले हैं. तब वह पैसा क्यों नहीं कमाएंगे. पेरेंट्स निजी स्कूल में बच्चों के एडमिशन नहीं कराएंगे, तब वह तो खुद ब खुद ही बंद हो जाएंगे. कि वहां पर बच्चों पर ध्यान नहीं दिया जाता है अनुभवहीन कम सैलरी वाली टीचर का ध्यान ट्यूशन पर ज्यादा होता हैं. देखा जाए तो यह भी वोट बैंक की राजनीति का ही हिस्सा है. बड़ों की जिद और बचपन का भविष्य कहां ले जायेगा यह तो आने वाले वक़्त में ही पता चलेगा. फ़िलहाल तो स्थिति चिंताजनक है.