जिंदगी! एक अनबुझ पहेली है. जिसको आज तक कोई नहीं सुलझा पाया है. यह एक ऐसी पहेली है, जिसको जितना सुलझाओ, उतना ही उलझ जाती है. जिंदगी सुख-दुख के दायरे में सिमटी खुशियों के साथ शुरू होती है, लेकिन इसका अंत दुख और निराशा के साथ होता है. हंसते-मुस्कराते कोई नवजात जैसे-जैसे जिंदगी के रास्तों पर आगे बढ़ता है, वैसे-वैसे वह जिंदगी की उलझनों में उलझता जाता है. अपनी पहली करवट से ही उसको अहसास हो जाता है कि खुद मेहनत करने से ही खुशियां हासिल हो सकती है. इसलिए वह हर पल आगे बढऩे की कोशिश में लग जाता है. फिर तो संघर्ष का वह सफर शुरू हो जाता है जिसका अंत उसकी जिंदगी के अंत के साथ ही होता है. एक खुशी एक सत्य की तलाश में वह ताउम्र भटकता रहता है, लेकिन कभी उसका सामना खुशी और सत्य नहीं हो पाता. जिसके सानिध्य में उसको दो पल का सुकून मिल सके. बस वह कभी-कभी हताश और निराश होकर अपने मन को समझाने के लिए मान लेता है कि उसको खुशी हासिल हो गई है और वह थोड़ा सुस्ता लेता है. आखिर कोई कितना सुस्ताएगा. इस सुस्ताने के दायरे से जैसे ही वह बाहर निकलता है कि वैसे ही फिर उसको समस्याओं का चक्रव्यूह दिखाई देता है. मसलन बेरोजगार है तो रोजगार की तलाश, रोजगार है तो आमदनी की चिंता. अविवाहित है तो शादी की चिंता, शादी है तो बच्चों की समस्याएं, अपने सगे-संबंध्रियों की चिंता. यह कुछ ऐसी समस्याएं है, जिनको सुलझाते-सुलझाते वह इतना उलझ जाता है कि खुद उसकी जिंदगी विकट पहेली बन जाती है. इन सबके बीच सिर्फ एक बात समझ आती है कि यही तो जिंदगी है, जिसने अपनी जिंदगी की पहेलियों को सुलझाने का प्रयास नहीं किया, तो क्या किया. माना जिंदगी एक अबूझ पहेली है और उसको सुलझाना नामुमकिन है, लेकिन फिर भी प्रयास तो किया ही जा सकता है. यह भी कटु सत्य है कि जो आया है, उसको एक न एक दिन जाना ही है, इस जहां से. फिर जिंदगी से क्या डरना, जिंदगी को चक्रव्यूह को तोडऩे का भरसक प्रयास करना होगा, भले ही वह टूटे या हम टूटे