हर कैटेगरी में आरक्षण की देने की बात करने वाली सरकारों को चाहिए कि वह सभी तरह के आरक्षण समाप्त कर अनारक्षित वर्ग के लिए एक कैटेगरी बना दें. फिर जो सरकार के नुमाइंदों का विरोध करें, उनको उस कैटेगरी में डाल दें. हद है आरक्षण मांगने व देने वालों की. इतनी कैटेगरी बना दी है कि मालूम ही नहीं चलता कि कौन किस श्रेणी में कितने प्रतिशत तक आरक्षण पाने का अधिकारी है. जातिगत आरक्षण से आगे निकलने हुए आंदोलनकारी कोटा, सरकारी कोटा,
खेल कोटा, बीएड कोटा, ये कोटा, वो कोटा, फलां कोटा. मालूम ही नहीं कितने कोट पहना दिए अपने चहेतों को. इस कोटा के चक्कर में न जाने कितने कोर्ट के दाएं-बाएं ही घूमने लगे. हर कमी को छिपाने के जुगाड में बड़ी लाइन खींच देना. फिर कौन किस बात को कितना याद रखता है. जब दो वक्त की रोटी के जुगाड़ में ही दिन काला हो जाता हो. यूं भी ज़िंदगी रोटी से चलती है, गोलियों से नहीं. घर में खाने को रोटी नहीं और पडोसी पर तोप ताने बैठे है. इधर बैंकों ने गजब कर रखा है एक गरीब
बेरोजगार को लोन देने के नाम पर पचास नखरे झाड़ देंगे, उधर माल्या जैसे किसानों को लाखों का ऋण यूं दे देगे, जैसे खैरात बांटने में मैडल मिल जाएगा. बेरोजगारी जैसी समस्या को जड़ मूल सहित खत्म करने की बजाय हर कोई अपनी
बीन ऐसे बजा रहा है जैसे
जनता सांप हो और वो नासमझ खुद अभी अभी आसमान से टपका हो. चाहे कितना भी हंगामा कर लीजिये, कुछ भी कर लीजिये, लेकिन जब तक हरेक हाथ को
काम नहीं मिलेगा तब तक समस्याएं यूं ही अपने सिर उठाती रहेगी और बीन बजाने वाले जनता को नचाते रहेंगे.