लोग अपने घर में मौजूद भगवान रूपी माता-पिता को छोडक़र उन अदृश्य भगवान की खोज में तीर्थस्थलों पर मारे-मारे फिरते है. या अपने घर में मौजूद मॉ को दुखी छोडक़र पूरी रात मां का जागरण कराने के लिए बेताब रहते है. यह एक सच है कि जब तक बच्चें घर नहीं आते, मां को नींद नहीं आती. ऋषि-मुनियों की सर्वोच्चतम कल्पना शक्ति के बल पर रचित बेहतरीन रचनाओं पर विश्वास किया जाए, तो हर काम की शुरूआत गणेश जी की आरती से करने वालों को गणेश जी पर विश्वास तो करना चाहिए. ब्रमाण्ड में सर्वश्रेष्ठ कौन को लेकर गणेश जी ने ब्रमाण्ड की परिक्रमा करने की बजाए अपने बुद्घि कौशल के बल पर अपने माता-पिता की परिक्रमा कर सर्वप्रथम पूज्य का सम्मान हासिल कर लिया था.
माता-पिता का दर्जा तो भगवान से भी ऊपर होता है, और सबसे बड़ा तीर्थस्थल वह होता है, जहां यह दोनों वास करते है. माना कि सृष्टि को चलाने वाले भगवान है, पर उनका अस्तित्व तो सिर्फ कल्पनाओं में ही है, उनको आज तक किसी ने साकार रूप में देखा नहीं. हमारे ऋषि-मुनि बहुत अव्वल श्रेणी के लेख क थे. उनकी कल्पना शक्ति की कोई थाह नहीं थी. तभी तो उन्होंने ब्रह्मा, विष्णु, महेश के रूप में तीन किरदारों का इतना बेहतरीन वर्णन करते हुए महाकाव्यों की रचना कर दी कि आने वाली पीढिय़ों को भगवान के अस्तित्व पर यकीन हो गया. साथ ही चित्रकारों ने इन ऋषि-मुनियों की कथाओं के किरदारों का अपनी कल्पना के आधार ऐसा चित्रण किया कि वो सजीव हो गए और सदियों से इस जगत के प्राणी हे भगवान, हे भगवान करते हुए उनकी एक झलक को यहां-वहां भटक रहे है. इन चित्रों में सबसे बड़ी बात देखने को मिलती है कि भगवान का बाल रूप, युवावस्था तो दिखाई देती है पर कभी भगवान का वृद्घावस्था का चित्र नहीं दिखता. यह तो सृष्टि का कटु सत्य है कि जो उत्पन्न हुआ है, उसका क्षरण होगा ही, और आज तक ऐसा ही होता आया है. तो फिर हमारे 84 करोड़ देवी-देवताओं में किसी एक का भी वृद्घावस्था का चित्र क्यों नहीं दिखता.
सच्चाई यह है कि भगवान को कभी किसी ने देखा तक नहीं, बस अपनी कल्पना के आधार पर भगवान भगवान करते हुए अपने अधे-कचरे ज्ञान के भरोसे सीधी-साधी जनता को सदियों से बेवकूफ बनाते चले जा रहे है. कभी सोचिए इन विद्घानों या राजा-महाराजाओं को द्वारा स्थापित तीर्थस्थलों में प्रतिदिन के हिसाब से करोड़ो-अरबों की संपत्ति का चढ़ावा आता है. क्या इस सम्पत्ति का उपभोग सिर्फ भगवान करते है, नहीं यह संपत्ति तो सिर्फ इन व्यवस्थाओं पर अपना एकाधिकार जमाने वालों के ऐशोआराम के लिए ही एकत्रित की जाती है. दूसरी ओर यह पब्लिक है, सब जानती है का दावा करने वाली पब्लिक हकीकत में कुछ नहीं जानती है. वह सिर्फ उस अदृश्य भगवान के प्यार में पागल होकर अपने माता-पिता के जीवन को कष्टमय करते हुए इन महापोंगापंथी पंडित ों के ऐशोआराम की हर चीज उपलब्ध कराने के लिए तीर्थस्थलों पर अपनी खूनपसीने की कमाई को खुले हाथों से लूटा कर चली आती है, और कहती दानपुण्य भी करना चाहिए.
अब कोई सोचो वह दानपुण्य भी किस काम का जब अपने माता-पिता ही खुश न हो सके. यहां पर एक बात हो सकती है. अगर अपने माता-पिता को सुख-सुविधा की हर चीज उपलब्ध कराने की हैसियत न हो तो कम से कम उनको दुख तो न दिया जाए, जबकि आजकल कितने ही माता-पिता अपने बच्चों की करनी का फल भुगतते थाना, कचहरी या अस्पताल में थानेदार, वकील या डॉक्टर के पास गिड़गिड़ाते नजर आ ही जाते है, जबकि दूसरी ओर उनके सुपुत्र या पुत्रवधू किसी पंडित या ज्योतिषी की शरण में अपने कष्टों के निवारण के लिए अच्छी खासी दक्षिणा के साथ बैठे रहते है. जबकि दूसरी ओर हमारे जनक हमारे सामने साक्षात मौजूद है. अगर भगवान न होते तो तब भी हम इस धरती पर आते, क्योंकि हमारे माता-पिता ने हमको जन्म देने का फैसला कर दिया था. आज हम इतने मतलबी क्यों होते जा रहे है कि उनके शेष जीवन को सुखमय करने की बजाय दुःखमय बनाते जा रहे है. यहां पर कुछ अपवाद हो सकते है.