कितनी ही ख्वाहिशों को,
सहेज कर
परत दर परत
रख दिया है मैंने
मन के
बंद दरवाजों के पीछे,
कितने ही सपनों को
समेट लिया है
कोमल पलकों के नीचे,
क्योंकि शायद
अहमियत नहीं मेरे
ख्वाहिशों और सपनों की
जरूरत नहीं है
उन्हें पूरे होने की
क्योंकि मैं
मैं हूं एक नारी
जो होती अबला बेचारी
सदियों से जिसे जीने के
तरीके सिखाए गए
घुंघट और बुर्के के
दस्तूर बताए गए
जिंदगी मेरी
पर जीनी है
दूसरों के लिए
दूसरों के तरीके से
क्योंकि
शुक्र है उनका
जिन्होंने मुझे
इस दुनिया में आने दिया
वरना मेरी जरूरत ही नहीं थी
इस जमाने को
मुझ जैसी ही लाखों
कोख में ही दम तोड़ देती हैं
तरसती है
इस दुनिया में आने कोl