सभ्य सभा में हुआ आज एक अनर्थ भारी
अपनों के समक्ष अपनों से ही
लज्जित होती थी एक नारी
थे पांच पति उस सभा बीच
पांचों के पांचों मौन रहें
यह कठिन कुठाराघात हृदय में
कोमल हृदया कैसे सहे
हे पिता पितामह चुप क्यों हो
कहां गया वह धर्म उपदेश
लज्जा न आती तनिक तुम्हें
देख मेरा विक्षिप्त वेश
हे दुर्योधन तू मत कर
ऐसा घृणित नीच यह कर्म
भ्रातवधू हूं मैं तेरी
क्या नहीं जानता इसका मर्म
दुःशासन ऐसा कर्म न कर
तू ही इसका फल भोगेगा
तेरे लहू से धूलेंगे केश मेरे
जग सारा यह देखेगा
दुर्योधन यह साम्राज्य तेरा
क्षण में धूमिल हो जाएगा
भीष्म भी होंगे बाणों पर
वह समय जल्द ही आएगा
नष्ट होगा यह कौरव समाज
सबको मरते मैं देखूंगी
सबने देखा अपमान मेरा
मैं मेरी आंखें सेकूंगी
पर प्राण नहीं त्यागूंगी मैं
सब सर्वनाश अब देखूंगी
जिसने देखा अपमान मेरा
सबको मरते अब देखूंगी
थी सभा मौन ,संवेदनहीन
न किसी ने करुण पुकार सुनी
गिरिधर का ध्यानधरा क्षण में
हो अति कारुण ,होकर अति दीन
हे गिरिधर नटवर आओ
आ जाओ मुझे बचाने को
जल्दी आओ मत देर करो
है प्राण पखेरू जाने को
थे हाथ बंधे और आंखें नम
नयनों में बेबस लाचारी
वस्त्रों के बीच खड़ी थी वह
वस्त्रों से लिपटी एक नारी
तब गिरिधर नटवर नागर ने
ऐसी माया फैलाई थी
ना वस्त्र हीन कर सका कोई
द्रोपदी की लाज बचाई थी
क्यों नारी इस निष्ठुर जग में
निजी संपत्ति मानी जाती है
क्यों पुरुषों पर ही आश्रित वह
पुरुषों से जानी जाती है
क्यो हमें जरूरत केशव की
क्यों पुरुष हमारे संरक्षक
इतिहास विदित है इस जग में
यही हमारे थे भक्षक
अब द्रोपदी ,ना ही सीता
बनना हमें स्वीकार नहीं
हम से ऐसी आशा का
जग को कोई अधिकार नहीं
लक्ष्मीबाई दुर्गा जैसी
हर बाला को आज सँवरना है
छू न सके परछाई कोई
निज तन में शक्ति भरना है।