*सकल संसार में जितने भी प्राणी हुए हैं सब अपने-अपने गुण लेकर पैदा हो पैदा होते हैं | जड़ चेतन सबके अपने-अपने गुण हैं | सोना, चांदी, सर्प, गाय, गेहूं-चावल आदि सबके अपने एक विशेष गुण हैं | अपने अपने विशेष गुणों के कारण सबकी अलग-अलग पहचान है | उनके गुणों में कभी बदलाव नहीं होता | जैसे गाय कभी मांस नहीं खा सकती और शेर कभी घास नहीं कर सकता है | परंतु मनुष्य एक ऐसा प्राणी है जिसे अपने विचार के अनुसार अपने गुणों में बदलाव करने का विशेषाधिकार मिला है ! वह अपने गुणों से डाकू से आदिकवि वाल्मीकि बन जाता है अपने अंदर के रावण पर भी शासन करने लगता है | संस्कार के द्वारा इस बदलाव का गुण सिर्फ मानव को मिला हुआ है , फिर भी मनुष्य अपने गुणों में बदलाव नहीं करता है उसी अंधकूप में पड़ा हुआ एक कूपमंडूक की तरह पूरा जीवन व्यतीत कर देता है | कुछ तथाकथित धर्मगुरुओं के चक्कर में पड़कर मनुष्य स्वतंत्र जीवन नहीं जीना चाहता है | स्वतंत्र अभिव्यक्ति करने वाला अपने गुणों में बदलाव कर सकता है परंतु कुछ लोग ऐसे हैं जो मनुष्य के गुणों को बदलने ही नहीं देना चाहते ऐसी स्थिति में मनुष्य को स्वयं सोचने का अधिकार है कि वह जो कर रहा है सही है या गलत |
धर्म के विषय में जो तथाकथित गुरुओं ने बता दिया मनुष्य उसके ऊपर नहीं उठना चाहता ना उससे ज्यादा सोचना चाहता है जबकि आप देखते हैं कि एक दर्जी एक ही व्यक्ति व्यक्ति का कपड़ा सिलने के लिए बार-बार उस की नाप लेता है , एक ज्योतिषी एक ही समय में पैदा हुई अनेक जातकों की कुंडलियां अलग-अलग बनाता है |* *उसी प्रकार मनुष्य को भी नित्य ही धर्म की नई परिभाषाएं जाननी चाहिए और जीवन में उतारना चाहिए |मनुष्य व पशु में भय, निंदा, आहार, मैथुन की ही समानता मिली हुई है शेष मनुष्य अपने विचारों से अपने संस्कारों से अपने अंदर विशेष गुणों का परिमार्जन करता है | निन्यानबे प्रतिशत लोग जन्म से मृत्यु तक खुद को शिक्षा-दीक्षा-नौकरी-निवृत्ति-बुढ़ापा के चक्र में कोल्हू के बैल की तरह जोते रखते हैं। यह कोई नहीं सोचता कि मैंने अमुक वृत्ति व नीति से काम लिया, उसका क्या परिणाम हुआ? क्या मैं सुखी हूं? मुझे तृप्ति क्यों नहीं मिलती? मैं कौन हूं? कहां से आया और कहां जाना है? ऐसी जिज्ञासाएं हमसे दूर ही रहती हैं। सभी लोग भेड़-बकरियों के झुण्ड की तरह चलते रहते हैं, न दिशा बोध न जीवन को सुधारने की प्रेरणा। मनुष्य को यदि विवेक की ओर बढ़ना है, तो उसे अपने जीवन को कुछ मूल्यों के अनुसार ढालना होगा। सीखने या अपनाने की दृष्टि से तीन गुण अग्रणी माने जाते हैं। शरीर के स्तर पर ब्रह्मचर्य, मन के लिए अहिंसा एवं बुद्घि के लिए सत्य। ब्रह्मचर्य का अर्थ केवल नर-नारी के शारीरिक सम्पर्क से अलगाव ही नहीं हैं। ब्रह्मचर्य से तात्पर्य, समस्त इन्द्रियों के स्तर पर आत्मसंयम व समुचित नियंत्रण है। किसी भी वस्तु या प्रसंग के अतिरेक से उसका मूल्य या स्वाद जाता रहता है। जैसे सृष्टिकर्ता ने हमें प्राणवायु इतनी दे रखी है कि उसका मूल्य तभी समझ में आता है, जब जीवन की रक्षा के लिए अस्पताल में अप्राकृतिक प्राणवायु के प्रयोग की नौबत आती है।* *समयानुकूल अपने गुणों में परिवर्तन करने वाला मनुष्य ही जीवन में सफलता की ऊंचाईयों पर पहुँचकर आदर्श प्रस्तुत कर सकता है |*