*चौरासी योनियों में सर्वश्रेष्ठ एवं सबसे सुंदर शरीर मनुष्य का मिला | इस सुंदर शरीर को सुंदर बनाए रखने के लिए मनुष्य को ही उद्योग करना पड़ता है | सुंदरता का अर्थ शारीरिक सुंदरता नहीं वरन पवित्रता एवं स्वच्छता से हैं | पवित्रता जीवन को स्वच्छ एवं सुंदर बनाती है | पवित्रता, शुद्धता, स्वच्छता मानव-जीवन को ऊँचा उठाने के लिये एक महत्वपूर्ण सद्गुण है | मनुष्य के लिए पवित्रता क्यों आवश्यक है इसके विषय में हमारे धर्मग्रंथों में बताया गया है :--- कुचैलिनं दन्तमलोपधारिणं , बह्णशिनं निष्ठुरभाषिणं च ! सूर्योदये चास्मिते च शायिनं , विमुञ्चति श्रीरपि चक्रपाणिम् !! अर्थात :-- "मैले वस्त्र पहनने वाले, दाँत गंदे रखने वाले, ज्यादा खाने वाले, निष्ठुर बोलने वाले, सूर्योदय एवं सूर्यास्त के समय सोने वाले स्वयं विष्णु भगवान हों तो उन्हें भी लक्ष्मी जी त्याग देती है | कहने का तात्पर्य यह है कि मनुष्य को स्वच्छ एवं पवित्र रहना चाहिए | शरीर सुंदर हो इसकी अपेक्षा मन (हृदय) का सुंदर होना बहुत आवश्यक है | एक पवित्र हृदय से ही पवित्रता की भावना विकसित हो सकती है | मन की पवित्रता ही सर्वश्रेष्ठ पवित्रता है | मन की पवित्रता से संपूर्ण शरीर की पवित्रता संभव है | अधिकतर लोग शरीर को पवित्र बनाने के बारे में सोचते रहते है परंतु मन की पवित्रता के बारे में सोचते भी नहीं है | वास्तव में मन की पवित्रता से दैनिक दिनचर्या में होने वाले कर्मों में भी पारदर्शिता और पवित्रता की झलक साफ दिखाई देती है | मानव जीवन में पवित्रता के महत्व को दर्शाते हुए हमारे शास्त्र कहते हैं कि :- पवित्र व्यक्ति पर वज्र भी गिरे तो उसका बाल बाँका नहीं कर सकता | " वज्रात् त्रायते इति पवित्रः " | जो पवि अर्थात् वज्र से भी रक्षा करे, उसका नाम है पवित्र | वज्र पवित्र व्यक्ति का स्पर्श नहीं कर सकता | प्रत्येक मनुष्य को मन से सुंदर एवं पवित्र बनने का प्रयास करना चाहिए |* *आज के युग में पवित्रता एवं सुंदरता का अर्थ बदल गया है | अनेक लोग स्वच्छता अथवा सफाई का अर्थ केवल ऊपर की टीपटाप, आकर्षक शृंगार या बढ़िया फैशन बना लेना ही समझते हैं | कुछ लोगों की दृष्टि में बढ़िया वस्त्र, आभूषण, प्रसाधन सामग्री का उपयोग करना सफाई और सौंदर्य का प्रमाण समझा जाता है | कुछ लोग ऐसे भी हैं जो शरीर और वस्तुओं की अधिक सफाई सौंदर्य की वृद्धि आदि बातों को साँसारिक प्रपंच मानकर इनकी उपेक्षा करने में ही सफलता का अनुभव करते हैं | पर ये सभी दृष्टिकोण एकांगी हैं | यह हो सकता है कि कुछ लोग विलास-प्रियता का शृंगार के भाव से ही स्वच्छता और सफाई करते है यह भी हो सकता है कि अन्य लोग अपना वैभव, न प्रकट करने के दृष्टिकोण से सफाई पर ध्यान देते है | पर इससे स्वच्छता की प्रवृत्ति को अनावश्यक या अनुकरणीय नहीं माना जा सकता | मेरा "आचार्य अर्जुन तिवारी" का मानना है कि स्वच्छता, एवं पवित्रता एक ही उच्च मनोवृत्ति के रूप हैं और दोनों का स्वस्थ, मन को प्रसन्न तथा आत्मा को शान्त करने में इनका बड़ा योग रहता है | बाह्य स्वच्छता और पवित्रता से अन्तःकरण की पवित्रता की भी वृद्धि होती है | मन में अशुद्ध भावों का उदय होना स्वयमेव कम पड़ता जाता है | प्राय: लोग तीर्थों में इस शरीर को मल मलकर धुलते हैं परंतु मन को नहीं धुल पाते हैं | आंतरिक पवित्रता से शून्य मनुष्य किसी संगमरमर की मूर्ति से अधिक नहीं समझे जा सकते | मनुष्य को सदैव मन से , वचन से , एवं कर्म से पवित्र होना चाहिए |* *मनुष्य के मन को दर्पण की संज्ञा दी गयी है ! दर्पण सदैव स्वच्छ एवं पवित्र ही रखना चाहिए अन्यथा उसमें अपना ही प्रतिबिम्ब दिखना बन्द हो जाता है |*