*परमपिता परमात्मा ने मनुष्य की सृष्टि करने के पहले उसकी आवश्यकताओं का ध्यान रखते हुए सुंदर प्रकृति की रचना की | धरती , आकाश की रचना करने के बाद मनुष्य के जीवन से जुड़े अग्नि , जल एवं वायु की रचना करके मनुष्य को एक सुंदर जीवन जीने का मार्ग प्रशस्त किया | इस धरती पर ऊंचे - ऊंचे पहाड़ तो बनाये ही साथ ही इन पहाड़ों पर जीवनदायिनी औषधियां भी उत्पन्न की , इसी के साथ अनेकों प्रकार की वृक्ष एवं छोटे - छोटे पौधे , लताएं सृजित कीं | प्रकृति का संतुलन बनाए रखने के लिए समय-समय पर ऋतुकाल भी उपस्थित किया | मानव जीवन जीने के लिए अग्नि , जल और वायु का कितना महत्व है इसको बताने की आवश्यकता नहीं है | वायु का संचरण वृक्षों के माध्यम से होता है और वायु के चलने से ही बादल उमड़ घुमड़ कर बरसात करते हैं जिससे मनुष्य को इस पृथ्वी पर जीवन दाता जल की प्राप्ति होती है | इतना सब रचना रचने के बाद ईश्वर ने मनुष्य को उत्पन्न किया और मनुष्य भी अपने बुद्धि विवेक के माध्यम से संपूर्ण पृथ्वी का शासक बना , परंतु वह ईश्वर के विधान को नहीं समझ पाया | ईश्वर का विधान इतना व्यापक है कि समय - समय पर जब मनुष्य को जैसी आवश्यकता होती है वैसी व्यवस्था करता है | गर्मी , ठंडक , बरसात एवं बसन्त अपने समय पर उपस्थित रहते हैं , जिससे मनुष्य का कार्य संपादित होता रहता है |
भारत की अर्थव्यवस्था अधिकतर
कृषि पर आधारित है और कृषि प्रकृति पर ही आधारित है | इतना विकास करने के बाद भी मनुष्य को खेती करने के लिए प्रकृति का सहारा लेना ही पड़ता है | पूर्व काल में वृक्षों को जीवनदायी देवता मान करके मनुष्यों के द्वारा उनका संरक्षण किया जाता था तो वृक्ष भी मनुष्य को शीतलता प्रदान करते हुए जल वर्षा में सहयोग करते रहते थे , परंतु धीरे-धीरे जनसंख्या बढ़ने के साथ ही पृथ्वी पर मानव का विस्तार होने लगा और वृक्षों का संरक्षण करने वाला मनुष्य ही उनका काल बन गया , जिसका परिणाम हुआ प्राकृतिक असंतुलन | इस प्राकृतिक असंतुलन का परिणाम आज मनुष्य भोग रहा है |* *आज धरती पर प्रकृति असंतुलित होती चली जा रही है | मनुष्य की उपभोगवादी प्रवृत्ति ने प्रकृति को इतना नुकसान पहुंचाया है कि प्रकृति की मूल संरचना विकृत हो गई है | अति विस्तार के लोभ में मनुष्य अपने कर्तव्यों को भूल गया है | आज लगभग आधा भारत जल प्रलय के प्रकोप से लड़ रहा है , इसका कारण मनुष्य की प्रकृति के प्रति आ संवेदनशीलता एवं अकर्मण्यता को ही कहा जाएगा | मैं "आचार्य अर्जुन तिवारी" विचार करता हूं कि आज हम किस मानसिकता के शिकार होते चले जा रहे हैं क्योंकि यह साधारण सी बात है कि जो हमको जीवन प्रदान करें हम उसका संरक्षण करते हैं परंतु आज इसके विपरीत ही परिणाम देखने को मिल रहा है | अपनी आर्थिक उन्नति के लिए कोई भी कीमत देने के लिए तैयार आज का मनुष्य सारी कीमत प्रकृति से ही ले लेना चाहता है | आज धरती से वन एवं वृक्षों के समूह लुप्त होते जा रहे हैं जिसके कारण प्रकृति असंतुलित होकर की मनुष्य को असमय काल के गाल में ले जा रही है | यह आवश्यक नहीं है कि प्रकृति का संरक्षण करने के लिए विकास की गतिविधियों को रोक दिया जाए परंतु मनुष्य का कर्तव्य बनता है कि वह पर्यावरण को भी बनाए रखें | इस धरती पर उपलब्ध पेड़ - पौधे , नदियां एवं अनेक छोटे-बड़े वन हमको हमारे पूर्वज देकर गए हैं इनका संरक्षण करना आवश्यक है , नहीं तो हम अपनी आने वाली पीढ़ियों को क्या दे करके जायेंगे ? जब धरा वृक्ष विहीन हो जाएगी तो इस धरती पर जीवन ही नहीं रह जाएगा और इसका दोष विकासवादी मनुष्यों को ही जाएगा |* *प्रकृति का संरक्षण एवं नित्य वृक्षारोपण करके प्रकृति को संतुलित किया जा सकता है , जैसा कि पूर्वकाल में हमारे पूर्वज करते आए हैं | यदि हमने ऐसा नहीं किया तो आने वाली पीढ़ियों को हम जवाब देने लायक नहीं रह जाएंगे | अत: इस पर गम्भीरता से विचार करना परम आवश्यक है |*