*इस सृष्टि की रचना परमपिता परमात्मा ने बहुत ही आनंदित होकर किया है | अनेक बार सृष्टि करने के बाद नर नारी के जोड़े को उत्पन्न करके ब्रह्मा जी ने मैथुनी सृष्टि की आधारशिला रखी | इस समस्त सृष्टि का मूल नारी को कहा गया है ऐसा इसलिए क्योंकि नर नारी के जोड़े को उत्पन्न करने के पहले ब्रह्मा जी ने कई बार मानवी सृष्टि परंतु बिना नारीतू के वह सृष्टि गतिमान नहीं हो सकी इसीलिए नारी को सृष्टि का मूल कहा जाता है | मां , बहन एवं पुत्री के रूप में नारी सदैव पुरुष वर्ग को सत्मार्ग पर चलने की प्रेरणा देती रही है | नारी का सबसे बड़ा त्याग तब दिखाई पड़ता है जब वह अपने जन्मदाता माता पिता को छोड़कर अपने पति के घर नए परिवेश में पहुंचती है | एक नए जीवन का आरंभ करने वाली नारी का जीवन कैसा होगा यह उसके माता-पिता के द्वारा प्राप्त संस्कारों पर ही निर्धारित होता है | पूर्वकाल में जहां माता-पिता कन्या में संस्कार आरोपित करके उसे विदा तो करते ही थे साथ ही कन्यादान कर देने के बाद ससुराल पक्ष के निर्णय पर कोई आपत्ति भी नहीं करते थे | इसका ज्वलंत उदाहरण हमें रामायण में देखने को मिलता है | महाराज जनक की पुत्री सीता को जब वनवास जाना हुआ तो महाराज जनक एवं सुनैना ने कोई आपत्ति नहीं की क्योंकि वे जानते थे कि पति के सुख में ही पुत्री का सुख है एवं पुत्री का कन्यादान कर देने के बाद उस पर माता-पिता का कोई अधिकार नहीं रह जाता है | महाराज जनक यदि चाहते तो अपनी पुत्री सीता को जनकपुर बुलवा सकते थे जिससे कि सीता बन के दुखों को भोगने से बच सकती थी परंतु उन्होंने ऐसा नहीं किया क्योंकि वे जानते थे कि हमारी कन्या का सुख एवं दुख उसके पति के ही साथ हैं | जब वे चित्रकूट में भी भगवान राम से मिलने गए तो सीता की दशा देखकर उनके आंखों से आंसू तो निकल पड़े परंतु माता सुनैना एवं महाराज जनक के मुख से विरोध का एक शब्द भी नहीं निकला | यहां तक कि महाराज राम के राजा बनने के बाद जब सीता का त्याग किया गया तब भी उन्होंने कोई विरोध नहीं किया | हमारे इतिहास को पढ़कर यह सीखने को मिलता है कि पत्नी का सुख पति की इच्छा में ही होता है | यही कारण है कि आज सीताजी का नाम बहुत ही आदर एवं सम्मान के साथ लेकर उनकी पूजा की जाती है | यदि सीता जी ने अपने जीवन में पति के ही सुख-दुख को अपनाया तो उसका मूल कारण था उनके माता-पिता के द्वारा प्राप्त संस्कार | यदि उनके भीतर संस्कार ना होते हैं तो वह भी राम के बनवास का विद्रोह कर सकती थी परंतु उन्होंने ऐसा ना करके आदर्श प्रस्तुत किया परंतु अब समय परिवर्तित हो गया है |*
*आज के युग में माता पिता अपनी संतान को संस्कार नहीं दे पा रहे हैं | आधुनिकता की चकाचौंध एवं संस्कार विहीन कन्याएं जब अपनी ससुराल जाती हैं तो वहां कुछ ही दिनों के बाद विघटन एवं पारिवारिक विभाजन देखने को मिल जाता है | मैं "आचार्य अर्जुन तिवारी" इन कारणों पर विचार करता हूं तो यह परिणाम निकल कर आता है कि आज संस्कारों की कमी के अतिरिक्त सबसे बड़ा कारण है पुत्री के जीवन में माता - पिता का हस्तक्षेप ! जरा सी बात पर पुत्री के यहाँ माता पिता या भाईयों का पहुँच जाना ही परिवार को खण्डित कर रहा है | ससुराल में जैसे ही पति से या सास से कोई कहासुनी हुई वैसे ही पुत्री अपने माता - पिता को सूचना पहुँचा देती है और आज के माता - पिता भी पुत्री को समझाते नहीं बल्कि उसी का पक्ष लेकर पुत्री के ससुरालियों पर आक्रमक हो जाते हैं उनके इन कृत्यों का परिणाम आज पारिवारिक न्यायालयों में देखने को मिल रहा है | आधुनिकता से ओत प्रोत एवं संस्कारविहीन पुत्री को संस्कार न दे पाने वाले माता - पिता अपनी पुत्री के सम्बन्ध विच्छेद का कारण कहे जायं तो अतिशयोक्ति नहीं कही जा सकती | पुत्री को इसीलिए संस्कारित करना आवश्यक होता है क्योंकि वह दो कुलों की मर्यादा होती है परंतु आज दुर्भाग्य यही है कि ऐसा बहुत ही कम देखने को मिल रहा है | विचार करने वाली बात है कि जो माता - पिता अपनी पुत्री की एक शिकायत पर पुत्री को ससुरराल से ले आकर सम्बन्ध विच्छेद का दावा कर रहे हैं वे अपनी पुत्री को क्या सुख दे रहे हैं ?? अपनी ही पुत्री को निर्वासित जीवन जीने को विवश करके स्वयं गृहस्थ जीवन का आनन्द भोगने वाले माता पिता ने यदि हमारे इतिहास से शिक्षा ली होती तो आज पारिवारिक न्यायालय की आवश्यकता ही नहीं पड़ती | यजि पुत्री के सुखी जीवन की कामना है तो उसे संस्कारित तो करें ही साथ छोटी - छोटी बात पर उसके जीवन में हस्तक्षेप करना बन्द करें अन्यथा समाज के साथ - साथ कई हृदयों का श्राप झेलते रहेंगे | नारी सृष्टि की धुरी होती है जिस प्रकार आग में तपकर ही सोना चमकता है उसी प्रकार संकटों से लड़कर ही नारी का जीवन आदर्श बनता है |*
*यदि कन्या के सुखी जीवन की आकांक्षा है तो माता - पिता को अपनी कन्या का कन्यादान कर देने के बाद उसके जीवन में हस्तक्षेप करना बन्द ही करना होगा |*