आज भारतीय संगीत चाहे वो लोक संगीत हो या शास्त्रीय संगीत धीरे-धीरे दम तोड़ रहा है। भारतीय संगीत को न तो ज्यादा लोग सीखना चाहते हैं और न ही कोई सुनना चाहता है। पश्चिमी संगीत ने भारत में आकर अपने प्रसार की नींव पर काम किया। उसने सबसे पहले अपने सुनने वाले और चाहने वाले बनाये व बढ़ाये। जैसे आजकल हर कोई गिटार सीखना चाहता है। दुकानदार कहते हैं कि गिटार सस्ता है इसलिए लोग खरीदते हैं। पर इससे भी सस्ते-सस्ते भारतीय वाद्य यंत्र हैं। उन्हें कोई नहीं खरीदता।
गिटार की ये दीवानगी बचपन से आती है। बच्चों के खिलौनों में गिटार या फिर गिटार के आकार के खिलौने मिलते हैं। बच्चों को क्राफ्ट में तो गिटार बनाना सीखा रहे हैं। चाबी के गुच्छे, फोटो फ्रेम, वाटर गेम सब गिटार के आकार में देखने को मिलेंगे। फोटो और संगीत (गिटार) का आपस में कोई सम्बन्ध नहीं है। पर ये आकार ही कहीं न कहीं लोगों के मन को गिटार (सुनने या बजाने) से जोड़ देता है। ये सब मार्केटिंग का हिस्सा है।
हमारे पूर्वजों ने संगीत को आत्मा से जोड़ा था जैसे शंकर जी डमरू, सरस्वती व नारदजी वीणा, कृष्ण बाँसुरी आदि। पर आजकल मन्दिर या जागरण आदि में फिल्मी धुनों पर भजन बजते हैं।