दिवाली के जिन पटाखों से कई संस्थाओं से लेकर अदालत तक चिंतित हो जाती हैं। वही पटाखें होली पर क्यों बढ़ते जा रहे हैं? क्या ये होली पर प्रदूषण करना बंद कर देते हैं? वैज्ञानिकों की मानें तो इन पटाखों से निकलने वाला रंगीन छुआ कहीं ज्यादा घातक है। फिर भी कोई अभी होली पर पटाखों के प्रयोग पर कुछ बोलना नहीं चाहता।
दर असल यह पटाखे हमारे त्यौहार (होली) को बर्बाद करने की एक चाल है। होली आप अकेले नहीं बना सकते। इसमें आपको कोई साथी चाहिए जिसे आप रंग लगा सके या पानी से भिगो सकें। हमारे पड़ोस में दो छोटे-छोटे बच्चे पिचकारी से खेलना नहीं चाह रहे थे। वो पहले पटाखे चलाना चाह रहे थे। धीरे-धीरे यही हो जायेगा। अगले 10 या 20 साल बाद होली इन बच्चों के लिए रंग की जगह पटाखों का त्यौहार हो जायेगा। और एक पूरी पीढ़ी रंगों व आपसी मेल जोल से दूर हो जाएगी व होली के पटाखों की दीवानी बन जायेगी। (जैसे आजकल के किशोर जापानी कार्टून के दीवाने हैं व उनकी बुराई नहीं सुन सकते।) फिर इन पटाखों पर बेन लगाने की बात की जायेगी। पानी की बर्बादी की बात कहकर होली को पहले ही पानी से अलग करने की कोशिशें चल रही हैं। वैज्ञानिकों की माने तो इस संक्रमण काल में त्वचा का पानी के संपर्क में आना लाभकारी होता है। दूसरे धर्मों में कई त्यौहार हैं जो पानी बर्बाद करते हैं। शहरी जीवन भी पानी की बर्बादी को बढ़ावा दे रहा है, चाहे वो कार धोना हो, R O या कुछ और। कार धुलाई सेन्टर तो इतना पानी बर्बाद करते हैं कि उन पर तुरंत रोक लगनी चाहिए।