आज कुछ दंगाइयों के घर तोड़े जा रहे हैं या उनकी सम्पत्ति जब्त की जा रही है तो कुछ स्वतः संज्ञान वालों को संवेधानिक प्रावधानों की याद आ रही है। जिन लोगों के पूरे के पूरे घर व दुकानें इन दंगाइयों ने जला दिये क्या उनके कोई संवेधानिक अधिकार नहीं थे। इन दंगाइयों के लिये मानवाधिकार की बातें हो रही हैं। पर 70 सालों से जो दंगों के शिकार होते आये हैं उनके लिये मानवाधिकारों की बात क्यों नहीं होती।
एक आम आदमी शौक के लिए बाइक नहीं खरीदता। उसे एक बाइक खरीदने के लिए अपने कई सपनों को मारना पड़ता है, कई जरूरतों से समझौता करना पड़ता है। पर रास्ते में कुछ दंगाई उसकी बाइक छीनकर जला देते हैं। ये कोई सार्वजनिक या देश की सम्पत्त नहीं थी जिस पर कुछ नेता या स्वतः संग ज्ञान वाले टिप्पणी करने लगते हैं। क्या वे उस पीड़ित की क्षति पूर्ति का कभी कोई प्रयास करते हैं। 70 सालों से दंगा करने वाले आराम से जिंदगी गुजारते आ रहे हैं व उसका नुकसान दंगा पीड़ितों या आम आदमी को उठाना पड़ता है। आज कुछ अच्छा हो रहा है और इन दंगाइयों के मन में डर पैदा हो रहा है तो इसका स्वागत होना चाहिए।