सामाजिक विषयों पर मेरे विचार
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जुलाई 2008 में मार्केट में मल्टीमीडिया फोन आ गए थे। इससे पहले कैमरा फोन चल रहे थे जैसे nokia 6600, nokia 3220 । मल्टीमीडिया फोन आने से बाजार में चाइनीस फोन की बाढ़ सी आ गई थी। हर कोई चाइना के मल्टीमीडि
व्यकितत्व विकास या पर्सनैलिटी डेवलपमेंट बचपन से ही होना चाहिए। यह बात हमारे पूर्वजों ने शायद बहुत पहले जान ली थी। हमारे त्यौहार बच्चों के व्यक्तित्व विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। रामलीला मे
पर्यावरण को बचाने के लिये सरकार पॉलीथिन की थैली पर रोक लगा रही है। पर एक काम हमको भी करना है वो है प्लास्टिक को कचरे में जाने से रोकना है हम किसी को गिफ्ट देते हैं तो उसको रंगीन प्लास्टिक की पन्नी में
मेरे देखते देखते दो दशक बीत गए। मेरा बचपन 90's के दशक में बिता। मेरे छोटे भाई (कजन) का 2000 के दशक में बिता था। सन 2000 में बाजार में चाईनीज सामान आ गया था और घर में केवल टीवी। डीडी वन का जमाना अब चला
कृष्ण जी ने मोर पंख को अपने सिर पर स्थान देकर इस सुन्दर पक्षी की महत्ता बताई है। पर मूर्ख लोग भक्ति के नाम पर इसकी जान के लिये खतरा बन गये है। कल बाजार में बहुत सारे लोग 10-10 रुपये में मोर पंख बेच रह
एक समय था जब माइक्रो मैक्स, लावा जैसी भारतीय कम्पनियाँ चीन से फोन लाकर भारत में बेच रही थीं। फिर ओप्पो, वीवो आ गयी और भारतीय मोबाइल फोन कम्पनियाँ रेस से बाहर हो गयी। हमारे देश में इतनी टेक्निकल जानकार
आजकल लोगों पर अपने पड़ोसियों के लिए टाइम नहीं है पर फालतू के कामों के लिए खूब समय है। किसी ने घी-नमक से रोटी खाई और उसकी फोटो फेसबुक पर डाल दी। अब ठलुआ बैठे लोगों को देखिये उस रोटी पर 5000 लाइक आ गए। 2
बचपन में मेरे पास कुछ खिलौने थे जिनमें एक जिर्राफ भी था। बचपन से ही मैं जिर्राफ से परिचित था। नर्सरी की किताब में भी z फ़ॉर जेब्रा से बच्चे जेब्रा को पहचान जाते हैं। ये दोनों जानवर विदेशी हैं। यानी भार
सब लोग बन्दरों से परेशान हैं। 20 सालों से कई सरकारे बंदरों को पकड़वाकर एक मोहल्ले से दूसरे मोहल्ले में छुड़वा देती हैं। लँगूर वालों का धंधा चल निकला है। पर क्या बन्दर शहर में लड़कियाँ छेड़ने आते हैं या पै
स्कूल के बच्चों की पर्यावरण रैली निकल रही थी। सबके हाथों में पट्टीयां थी, पेड़ बचाओ, ये करो, वो करो। पर इन रैलियों से होता क्या है। न तो बच्चों पर कोई फर्क पड़ता है, न देखने वालों पर। हाँ सड़कों पर कुछ द
हेनरी फोर्ड का नाम सदी के महानायकों में लिया जाता है। पर वास्तव में इन्होंने किया क्या ? इन्होंने असेम्बली लाइन को अपनाया जिससे कारे बड़ी संख्या में बनने लगी। दूसरे उघोगों ने भी इनकी नकल शुरू कर दी। जि
हो-हल्ले की आवाज सुनकर मैं घर के बाहर निकला तो वहाँ का नजारा इस प्रकार था, मेहता जी ने बिट्टू कुमार का गिरेवान पकड़ रखा था और चिल्ला रहे थे दूसरों की बीबी को देखता है तेरी आशिक मिजाजी तो आज मैं उतारता
होली पर सासें खुद चिप्स पापड़ बनाती हैं। बहुए बाजार गयी और रेडीमेड चिप्स पापड़ खरीद लाई। दिवाली पर सासें अब भी घर की सजावट करती हैं, पुराने ढंग से रंगोली आदि बनाती हैं। बहुएं बाजार गई और रंगोली आदि के स
आज भारतीय संगीत चाहे वो लोक संगीत हो या शास्त्रीय संगीत धीरे-धीरे दम तोड़ रहा है। भारतीय संगीत को न तो ज्यादा लोग सीखना चाहते हैं और न ही कोई सुनना चाहता है। पश्चिमी संगीत ने भारत में आकर अपने प्रसार क
गाय की दो आँख, दो पैर व दो पंख होते हैं। गाय पेड़ पर रहती है। लोग इसे पिंजड़े में पालते हैं। गाय जल की रानी है। पानी से बाहर निकालने पर वह मर जाती है। शायद यह निबन्ध आपको अजीब लग रहा होगा। पर पहली क्लास
अनुवाद का नियम है कि नाम कभी बदला नहीं जाता है जैसे सूर्य प्रकाश नाम अंग्रेजी में सन लाइट नहीं होगा। पर अंग्रेजी बोलते समय कुछ नाम गलत ढंग से लिये जाते हैं जैसे राम को रामा, भरत को भरता, दशरथ को दशरथा
पिछले कुछ सालों से लोगों ने परम्परा की जगह फैशन को अपना लिया है। त्यौहार इत्यादि पर परम्परा का निर्वहन करने की जगह लोग नये-नये प्रयोग या नये-नये रीति रिवाज निकालने लगे हैं। जैसे करवा चौथ पर जिनके जहाँ
भारत में कॉमिक्स की शुरुआत 70 के दशक में हुई थी। उस समय बच्चों को कॉमिक्स पढ़ने से मना किया जाता था। बच्चे किताबों के बीच में कॉमिक्स छुपाकर पढ़ते थे। उस समय के दादा-दादी कहते थे कि कॉमिक्स बच्चों के दि
कम्पटीशन,कम्पटीशन...कम्पटीशन जो प्रतियोगिता के इस दौर में अपने आपको नहीं बदलता वो इस दौड़ से बाहर हो जाता है। यही कहना है आजकल लोगों का। पर अपने आपमें बदला क्या जाय। रामधारी सिंह दिनकर, काका हाथरसी इन्
पश्चिमी मीडिया व भारत के कई बुद्दूजीवी भारतीय परम्पराओ का मजाक उड़ाते रहते हैं। जबकि कई बार यह सिद्ध हो चुका है कि हमारी परम्पराएँ काफी वैज्ञानिक हैं। कई हजार सालों से चली आ रही हमारी परम्पराओं में कभी
वसन्त पंचमी वाले दिन होली का झण्डा गाड़ा जाता है। वसन्त के मौसम में पतझड़ शुरू हो जाता है। पेड़ से गिरे हुए पत्तों, टहनियों को लोग जला देते थे जिससे प्रदूषण होता था। इसे रोकने के लिए इन गिरे हुए बहुत सार
हिन्दू कोई धर्म नहीं बल्कि जीवन पद्धति है। आप ईसाई या इस्लाम की तरह इसको अपना कर हिन्दू नहीं बन सकते। पर भारत में रहने वालों को ही इस धर्म के मौलिक तत्वों या बेसिक का ज्ञान नहीं है। इसको सनातन धर्म कह
दिवाली के जिन पटाखों से कई संस्थाओं से लेकर अदालत तक चिंतित हो जाती हैं। वही पटाखें होली पर क्यों बढ़ते जा रहे हैं? क्या ये होली पर प्रदूषण करना बंद कर देते हैं? वैज्ञानिकों की मानें तो इन पटाखों से नि
शहरों में मॉल खुलने व बड़े बड़े ब्रांड के अपने शो रूम खोलने से छोटे दुकानदारों की बिक्री कम हो गई और अब ऑनलाइन के आ जाने से कई की दुकानें भी बंद हो चुकी हैं। जब अपने पर आई तो ये व्यापारी विरोध कर रहे है
पंजाब में कई लोग जनरैल सिंह के समर्थन में रैली निकाल रहे हैं। लगभग तीस साल पहले जनरैल सिंह के अपने आप को सन्त कहने पर पंजाब के लोगों ने उसका कोई विरोध नहीं किया बल्कि कई तो उसके अनुयायी बन गये थे। लेक
आज कुछ दंगाइयों के घर तोड़े जा रहे हैं या उनकी सम्पत्ति जब्त की जा रही है तो कुछ स्वतः संज्ञान वालों को संवेधानिक प्रावधानों की याद आ रही है। जिन लोगों के पूरे के पूरे घर व दुकानें इन दंगाइयों ने जला द
नुमाइश में कपड़े की दुकान लगी थी वहाँ जाओ, दुकानदार को बताओ कि आपको क्या चाहिए। दुकानदार तुरंत वो कपड़ा आपको दे देता। उसी के सामने जमीन पर कपड़ो का ढेर लगाकर एक दुकानदार बैठा था। वहाँ खुद ही ढेर में से क
सो-सोशल मीडिया का अवलोकन करते समय मेरी नजर एक लेख पर पड़ी। ये लेख मैंने 15-20 साल पहले अखबार में पढ़ा था। जो एक प्रसिद्ध लेखक ने लिखा था पर सो-सोशल मीडिया पर यह लेख उस व्यक्ति ने अपने नाम से डाल रखा था।
सुबह-सुबह ढोल नगाड़ों की आवाज सुनकर मैं यह देखने गया कि माजरा क्या है। सामने सड़क पर निशुल्क प्याऊ का उद्घाटन हो रहा था। यह प्याऊ शहर के प्रसिद्ध समाज सेवी की थी। जिनकी पूरे शहर में कई निशुल्क प्याऊ लगत
समय समय पर स्कूल वाहनों की मनमानी की बात होती रहती है। अभी स्कूल वाहनों पर स्कूल प्रबंधन का ही नियंत्रण रहता है। जिस प्रकार सिक्योरिटी गार्ड लेने के लिए एक खास कंपनी की सेवा लेनी पड़ती है। इसी प्रकार स
गूगले (गूगल) पर कुछ सर्च करो तो वह अपने यहाँ के परिणाम दिखाता है। भालू सर्च करो तो भूरे रंग के भालू, पुलिस सर्च करो तो चौकीदार (मुझे तो यही लगते हैं) , फुटबॉल सर्च करो तो कुछ। कई बार नाम बदल-बदल कर सर
सोशल मीडिया पर जौहर के ऊपर एक लेख पढ़ने को मिला। इसमें लिखा था कि सुअर की औलादें राजपूतों को मारकर उनकी औरतों को बेइज्जत करती थीं। हिन्दू औरतें अपने स्वाभिमान की रक्षा के लिए इन सुअर की औलादों के हाथ ल
आजकल लोग अपने पड़ोसियों व रिश्तेदारों से ज्यादा बनाकर (अपनापन) नहीं रखते। सबको अपनी प्राइवेसी या स्पेस की चिंता रहती है। कई त्यौहार निकल जाते हैं पर पड़ोसी एक दूसरे के घर जाते भी नहीं हैं। पड़ोस में बहुत
दशहरे को 'बुराई पर अच्छाई की जीत' के रूप में बनाया जाता है पर बच्चों को यह नहीं बताया जाता कि अच्छाई क्या है, बुराई क्या है। बच्चों को एक ही बात रटाई जाती है कि रावण बुरा आदमी था। यह बताकर इस पर्व को
मिसेज शर्मा अपनी सहेली के घर गयीं थीं। वहाँ सहेली के बेटे का जन्मदिन था इसलिए मिसेज शर्मा बच्चे के लिए आर्ट व स्टेशनरी का सामान पैक करवाकर लाई थीं। सामान देखकर बच्चा बोल पड़ा कि आँटी इनकी जगह इसका गिफ्
आप पटाखों में नहीं पैसों में आग लगा रहे हैं। दिवाली आते ही ऐसे मेसेज आने लगते हैं, पर क्या वाकई लोगों को पैसों में आग लगने या पैसों की बर्बादी की चिंता है। फूलों की बर्बादी पर कोई क्यों नहीं बोलता। 30
बाजार में कई लोग एक आदमी को पीट रहे थे पता चला कि वो आदमी किसी का पर्स चुरा के भाग रहा था। कई लोग हैं जो एक प्लेटफार्म से लेख चुरा कर उसे दूसरे प्लेटफॉर्म पर अपने नाम से प्रकाशित कर देते हैं। कई तो ऐस
अंकल लाल रंग के बटन देना। दुकानदार- पेंट के दूं या कमीज के? मैं- जी कमीज के। मैं छः या सात साल का था तब की ये बात है। उस समय एक ही तरह के बटन आते थे पर अब बटन में कई तरह के डिजाइन आते हैं। एक ही डिजाइ
अकेला कुत्ता पालतू जानवर होता है लेकिन झुंड में यह अपना जंगली स्वभाव प्रदर्शित करना शुरू कर देते हैं। जैसे भेड़िये झुंड में शिकार करते हैं वैसे ही कुत्तों का झुंड बनते ही उनमें भी झुंड के साथ मिलकर शिक
एक आदमी जब भी नहा कर आता उनके बाल पंखुड़ियों की तरह खड़े हो जाते। किसी ने इसका कारण पूछा तो उसने कहा कि मैं ok से नहाता हूँ इसलिए कमल सा खिल जाता हूँ। 90s का यह चुटकुला उस समय के साबुन की याद दिलाता है