कम्पटीशन,कम्पटीशन...कम्पटीशन जो प्रतियोगिता के इस दौर में अपने आपको नहीं बदलता वो इस दौड़ से बाहर हो जाता है। यही कहना है आजकल लोगों का। पर अपने आपमें बदला क्या जाय। रामधारी सिंह दिनकर, काका हाथरसी इन्हें सुनने व देखने के लिए हजारों की संख्या में लोग आते थे। पर क्या अब ऐसे लोग पैदा होने बंद हो गए हैं। जरा एक उदाहरण देखिए नुमाइश में शर्मा बन्धु का कार्यक्रम चल रहा था और वहाँ पर कुछ लोग ही बैठे थे।कुछ दिन बाद कवि सम्मेलन हुआ जिसमें अशोक चक्रधर व कई नामी कवि आये थे। वे एक दूसरे को ही कविता सुनाकर चले गए।
कुछ दिन बाद वहाँ बॉलीबुड अभिनेत्री का कार्यक्रम था। उसको देखने के लिए हजारों लोग वहाँ पहुँच चुके थे। पुलिस को उग्र भीड़ संभालने के लिए लाठीचार्ज करना पड़ा। इन कवियों या बुद्धिजीवियों के कम्पटीशन में हीरोइनें हैं। लोग इन दोनों का कम्पटीशन करने की बात कहते हैं भला यह कैसे संभव है।
डीडी 1 पर भी यही आरोप लगते हैं कि उसने अपने आप को समय के अनुसार नहीं बदला। डीडी 1 का मुकाबला था 'क्योंकि सास भी कभी बहु थी' जैसे नाटकों से। जिसे समाज शास्त्री अब तक का सबसे घटिया कार्यक्रम बताते हैं। जिसने भारतीय घरों को तोड़ने का काम किया और सास बहू के रिश्ते में जहर घोल दिया। पहले से ही छोटे परिवार और छोटे हो गये।
50 प्रतिशत घर टूटने के पीछे यही सास बहू के नाटक थे। अब क्या डीडी 1 भी ऐसा ही घटिया कंटेन्ट देना शुरू कर देता।
फिल्मों में कम्पटीशन के नाम पर कभी मल्लिका शेरावत तो उसे मात देने के लिए सन्नी लियोन जी आ गयी। और इनका कम्पटीशन लोग शास्त्रीय नृत्यांगनाओ (कथक आदि) से करते हैं। क्या वह अपने को इतना बदल लेगी (इतना गिर सकती हैं)। अब तो कम्पटीशन में टिक टॉकर और आ गए हैं।