*इस संसार में मनुष्य अपना जीवन यापन करने के लिए अनेकानेक उपाय करता है जिससे कि उसका जीवन सुखमय व्यतीत हो सके | जीवन इतना जटिल है कि इसे समझ पाना सरल नहीं है | मनुष्य का जन्म ईश्वर की अनुकम्पा से हुआ है अत: मनुष्य को सदैव ईश्वर के अनुकूल रहते हुए उनकी शरण प्पाप्त करने का प्रयास करते रहना चाहिए | इसी भाव को शरणागति भाव कहा गया है | शरणागति क्या है ? इस पर हमारे शास्त्रों में लिखा है :-- "अनन्यसार्थे स्वाधिष्ठे महाविश्वासपूर्वकं, तदेको उपायताकांक्ष प्रपत्ति शरणागति" ! अर्थात :- जब व्यक्ति यह समझता है कि वो स्वयं अपनी रक्षा करने में असमर्थ (कर्म, ज्ञान एवं भक्ति से हीन) है और भगवान के अलावा कोई और उसकी रक्षा करने में समर्थ नहीं हैं तो वह भगवान को असहाय भाव में रक्षा करने को पुकारता है | मन कि इस अवस्था को को शरणागति (शरणं आगति) कहते हैं | अपनी हार स्वीकार कर भगवान को उपाय बनने की विनती करना ही उपाय है | उपाय क्या है ? ‘उप आयते इति उपायः’ | जो लक्ष्य के करीब ले जाए उसे उपाय कहते हैं | शरणागति में तत्त्व नारायण हैं, पुरुषार्थ भी नारायण हैं और हित (उपाय) भी नारायण ही हैं | किसी के संरक्षण में चले जाना मात्र ही शरणागति नहीं कही जा सकती , पूर्ण शरणागति अवस्था में जीव कब पहुँचता है इस पर विचार करना आवश्यक है | हमारे शास्त्रों ने शरणागति के ६ अंग इस प्रकार बताये हैं :- "अनुकूलश्च संकल्पः प्रातिकूलश्च वर्जनं; रक्षिष्यती इति विश्वासः, गोप्त्रिप्त वर्णनश्तथा;कार्पण्य आत्मनिक्षेपे षड्विधा शरणागति:" अर्थात शरणागति के ६ अंग इस प्रकार हैं :- १- भगवान के अनुकूल कर्म करना, २ -भगवान के प्रतिकूल कर्म का परित्याग , ३- यह विश्वास की भगवान अवश्य हमारी रक्षा करेंगे , ४ - भगवान से शरणागति की प्रार्थना करना, दैन्यभाव (कार्पण्यं) , ५ - स्वयं को कर्म, ज्ञान और भक्ति से हीन समझना (कार्पण्यं) , ६ - आत्मा जो की भगवान की सम्पत्ति है, भगवान को वापस सौंप देना | इन ६ अंगों का पूर्णरूपेण पालन करके जब जीव भगवान की शरण में जाता है तो फिर उसे कुछ भी नहीं करना होता क्योंकि भगवान ने स्वयं कहा है कि :- सर्व धर्मान परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज ! अहं त्वा सर्व पापेभ्यो मोक्षिष्यामी मा शुचः !! अर्थात :- सभी उपायों (कर्म-योग, ज्ञान योग, भक्ति योग) को त्यागकर मेरी शरणागति करो, मैं तुम्हारे सभी पापों को नष्ट कर तुम्हें मोक्ष प्रदान करूँगा | यही शरणागति का भाव होता है |*
*आज मनुष्य भगवान को रिझाने के लिए , मनाने के लिए या फिर यह भी कह सकते हैं कि संसार को दिखाने के लिए अनेकानेक उपाय तो करता है परंतु वह माया के प्रपंचों में फंसकर भगवान के शरणागत नहीं हो पाता है | आज भगवान को मानने वाले तो बहुत हैं परंतु भगवान की मानने वाले बहुत ही कम हैं | आज लोग कहते हैं कि मेरा जीवन तो भगवान के ही भरोसे है , मैं तो उन्हीं की शरण में हूँ परन्तु विचार कीजिए आज का मनुष्य शरणागति के उपरवर्णित ६ अंगों में से कितने का पालन कर पा रहा है | कुछ लोग तो यह भी कहते हैं कि सब कुछ भगवान को सौंप देने के बाद भी काम बिगड़ जाता है तो ऐसे लोगों से मैं "आचार्य अर्जुन तिवारी" बताना चाहूँगा कि जीव जब भगवान की शरणागति में पहुँच जाता है तो काम के बनने या बिगड़ने की चिंता स्वयं भगवान की हो जाती है | आज जीव (मनुष्य) भगवान की शरण में जाकर शरणागत तो होना चाहता है परंतु कुछ ही क्षण में उसका विश्वास डगमगाने लगता है जबकि शरण्य भाव में विश्वास नहीं बल्कि महाविश्वास की आवश्यकता है | श्रीमन नारायण पर यह पूर्ण विश्वास की वो अवश्य ही हमारी रक्षा करेंगे | यदि महाविश्वास न हो तो फिर शरणागति का अर्थ ही क्या है ? मानस में बाबा जी ने लिख दिया है ':- "उपजइ राम चरन विश्वासा ! भव निधि तर नर बिनहिं प्रयासा !! महाविश्वास के साथ मनुष्य को यह भी कहना चाहिए कि हे भगवम :- "संसारकूपे पतितोऽत्यागाधे, मोहान्धपूर्णे विषयाभितप्ते ! करावलम्बं मम देहि विष्णो, गोविन्द दामोदर माधवेति !! अर्थात :- हे गोविन्द! दामोदर! माधव! मैं मोह रूपी अंधकार से व्याप्त और समस्त विषयों की ज्वाला (दावाग्नि) से संतप्त इस संसार रूपी गहरे कुएँ में पड़ा हूँ ! हे विष्णो! आप मेरा हाथ पकड़कर इस कुएँ से बाहर निकालिए। मुझे अपने हाथ का सहारा दीजिये, मैं अपने प्रयत्न से बाहर नहीं निकल सकता | इस भाव से यदि मनुष्य भगवान की शरण में चला जाय तो आज भी ईश्वर उसके योगक्षेम का वहन करते हैं |*
*जब मनुष्य शरणागति के ६ अंगों सहित भगवान की शरण में जाता है तो जिस तरह एक बछड़ा के धूल में लिपटे होने के वावजूद गाय उसे चाट-चाटकर साफ करती है, उसी प्रकार भगवान भी अपने शरणागतों के दोष और पूर्व के संचित पाप नहीं देखते |*