*संसार में अनेकों धर्म हैं जो अपनी कट्टरता के लिए प्रसिद्ध है परंतु इन सब के बीच में सनातन धर्म इतना दिव्य है जिसमें कट्टरता नाम की चीज नहीं है | यह इतना लचीला है कि लोग इसे अपने अनुसार मोड़ लेते हैं | सनातन धर्म में अनेकों व्रत / उपवास एवं उनके नियम बताए गये हैं जिसका पालन करने से मनुष्य को उसका फल मिलता है परंतु सनातन धर्म के मानने वाले कुछ नियम अपने अनुसार बनाकर उनका पालन करते हैं जिसके फलस्वरूप उनको संबंधित व्रत उपवास का पूर्ण फल नहीं प्राप्त हो पाता और जब उनके द्वारा किसी भी नियम को पालन करने के बाद भी उसका यथेष्ट फल नहीं प्राप्त होता तो भी सारा दोष सनातन धर्म को देते हैं | यह यथार्थ सत्य है कि यदि कोई भी कार्य करने पर उसका पूर्ण फल ना मिले तो यह मान लेना चाहिए कि दोष उस कार्य में नहीं बल्कि हमारे करने में था | इस समय श्राद्ध पक्ष चल रहा है लोग अपने पितरों के लिए तर्पण एवं श्राद्ध / पिंडदान आदि बड़ी श्रद्धा के साथ कर रही हैं परंतु इसमें भी लोगों ने सनातन ग्रंथों को किनारे रखकर अपने अनुसार नियम बना लिए हैं , जिसके कारण लोगों को तर्पण आदि का पूर्ण फल नहीं प्राप्त हो पाता और प्रत्येक पितृपक्ष में श्राद्ध / तर्पण श्राद्ध करने के बाद भी उनके घर में पितृदोष दिखाई पड़ता है | श्राद्ध के नियम लिखते हुए हमारे महर्षियों ने बताया है कि जो श्राद्ध करने के अधिकारी उनको कुछ नियम पालन करने होते हैं | जैसे :- उन्हें पूरे पन्द्रह दिनों तक या जिस तिथि को उनको श्राद्ध करना हो उस तिथि तक क्षौरकर्म ( बाल - दाढ़ी आदि ) नहीं कराना चाहिए , पूर्ण ब्रम्हचर्य का पालन करते हुए प्रतिदिन स्नान के बाद दर्पण करना चाहिए | इन पन्द्रह दिनों में तेल उबटन आदि का प्रयोग कदापि नहीं करना चाहिए | जैसा कि हमारे ग्रंथ बताते हैं :-- दन्तधावनताम्बूले तैलाभ्यडमभोजनम् ! रत्यौषधं परान्नं च श्राद्धकृत्सप्त वर्जयेत् !!" अर्थात :- दातौन करना, पान खाना, तेल लगाना, भोजन करना, स्त्री प्रसंग, औषध सेवन क्षौरकर्म और दूसरे के घर का अन्न आदि श्राद्धकर्ता के लिए वर्जित हैं | यद्यपि हमारे ग्रंथों में स्पष्ट निर्देश है परंतु लोग इन नियमों को धता बता कर के अपने अनुसार नियम बना लेते हैं तथा प्रायः प्रश्न करते हैं ऐसा क्यों किया जाय ? परंतु मेरा "आचार्य अर्जुन तिवारी" का मानना है कोई भी नियम यदि पालन किया जाय तो ढंग से किया जाए अन्यथा नियम पालन करने का ढकोसला कदापि नहीं करना चाहिए , क्योंकि जो नियम हमारे द्वारा परिवार में पालन किए जाते हैं वही परिवार की कुलरीति बन जाते है और कोई भी रीति नीति यदि बनाई जाय तो उसका आधार होना आवश्यक है | बिना आधार के स्वविवेक से बनाया गया कोई भी नियम कभी भी फल नहीं प्रदान कर सकता |*
*आज हम आधुनिक हो गए हैं | आधुनिकता की चकाचौंध में हमने सारे नियमों को किनारे कर दिया है | फैशन के इस युग में मनुष्य को सनातन के नियमों से विमुख कर दिया है , आज लोग कोई भी व्रत या उपवास करते हैं तो उसके सारे नियम अपने अनुसार बना लेते हैं | कुछ लोगों का तर्क होता है कि श्राद्ध कर्म में क्षैरकर्म क्यों कराया जाय ? ऐसे सभी लोगों को मैं " आचार्य अर्जुव तिवारी" बताना चाहूंगा कि जिस प्रकार नवजात शिशु का क्षौरकर्म कराने से उसके गर्भजनित दोष शांत हो जाते हैं , जिस प्रकार घर में किसी की मृत्यु होने पर दसवें दिन क्षौरकर्म करा करके उस दोष से निवृत्ति पाई जाती है उसी प्रकार श्राद्ध पक्ष में भी क्षौरकर्म करा करके पितृदोष की शांति होती है | प्रायः लोग अपने पितरों का तर्पण तो करते हैं श्राद्ध भी बड़ी श्रद्धा से करते हैं परंतु कार्यालय जाने तथा अपने शरीर की रंगत बिगड़ जाने के भय से क्षौरकर्म नहीं कराते हैं और तरह-तरह के तर्क भी देते रहते हैं | ऐसे लोग सब कुछ करने के बाद भी कुछ नहीं कर पाते हैं और ना इधर के रहते हैं ना उधर के | जिस प्रकार एक विद्यार्थी परीक्षा कक्ष में बैठकर परीक्षा देता है | तीन घंटे के समय में वह भले ही अपने अपना उत्तर एक घंटे में पूर्ण कर दें परंतु उसको तीन घंटा परीक्षा कक्ष में बैठना होता है , उसी प्रकार यदि किसी भी कर्म का फल प्राप्त करना है तो उनकी नियमों को पालन करना ही होगा अन्यथा सब कुछ करने के बाद भी उसका फल प्राप्त होना बड़ा कठिन है | क्षौरकर्म कराने से पितरों को शांति मिलती है इसीलिए हमारे पूर्वजों ने गरुण पुराण के आधार पर यह नियम बनाए थे | जितने भी नियम सनातन धर्म में हैं मानव मात्र के कल्याण के लिए ही हैं मानना या ना माने ना हमारे ऊपर निर्भर है , परंतु आज की चकाचौंध हम ग्रंथों की सारी बात जानना तो चाहते हैं परंतु उनको मानने में हमको हिचकिचाहट होती है , क्योंकि हम संसार को देखने लगते हैं | यह सत्य है कि सनातन के नियम थोड़ा कड़े तो हैं परंतु यह भी सत्य है यदि नियमों का कड़ाई से पालन कर लिया जाय तो उसका फल हमको अवश्य प्राप्त होता है | पूजा-पाठ , व्रत - उपवास , अनुष्ठान एवं श्राद्ध कर्म आदि श्रद्धा एवं विश्वास का विषय है | यदि श्रद्धा एवं विश्वास दृढ़ है तो सब कुछ प्राप्त हो सकता है अन्यथा सब कुछ करने के बाद भी कुछ नहीं प्राप्त होता |*
*श्राद्ध के नियम यदि कड़ाई से पालन कर लिए जाएं तो परिवार में कभी भी पितृदोष नहीं हो सकता परंतु यह हमारी मनमानी का ही परिणाम है कि आज प्रायः हर घर में श्राद्ध कर्म होने के बाद भी पितृदोष स्पष्ट दिखाई पड़ता है |*