प्रगति जी सौम्या से कहती हैं - - - प्रगति जी - अब चलों जल्दी से नीचे ,,, वोलोग तुम्हारा वेट कर रहे है और तुम्हारे होने वाले वो ..... भी ...☺️ प्रगती जी ने तुम्ह
जब से तुम गये,हैं वीरान,देहपुर की गलियाँ,पसरी है एक नीरसता यहाँ।मन के भवन के समीप,जो लगा था,उम्मीदों का तरु,झर गये उससे,एक एक कर,पीत होकर स्वप्न पत्र।पडे़ हैं निष्प्राण धरा पर,स्मृतियों की पवन,जब चलती
चल रहा है, जीवन की कक्षा में, सभी का इम्तेहान। उत्तर पुस्तिका पर, उत्तर पुस्तिका, लेते जा रहे हैं सभी । मैं लिये बैठी, एक उत्तर पुस्तिका, भर न पा रही वो भी। किसके पास , है कौन सी कलम? नहीं है मुझको ज्
देखे तो थे स्वप्न हजार, मिले खुशहाल, सुखी संसार। देख रहे थे ,
एकांत के क्षणों का लाभ उठाकर वासना के पुतले बहला-फुसलाकर, ले जाते हैं मासूम बच्चियों को , डाल देते हैं अपनी हवस मिटाकर !! खिलने से पहले ही ,वो मुरझाती हैं , जिन्हें नोच,खसोट कर ,ये करते बरबाद!! एकांत
अपना शहर छोड़कर ,मेरे दिल के शहर में ,चाहूं कि तू बस जाये !!मैं सजाये बैठी हूँ ,तेरे प्यार की तस्वीर,अपने मन के खांचे में ,तू आकर एक नज़र तो डाले ,देखकर मुस्कुराये !!!करती हूँ ,बेपनांह ,मोहब्बत मैं तु
पूर्ण सत्य सुधा से भरकर,कठिनाइयों के ताप में तपकर,कांतियुक्त कुंदन बनकर,परिभाषित होती ,मैं नारी हूँ।समझदारी से तालमेल बिठाकर,पर घर में सामंजस्य बनाकर,दुख,क्लेश विस्मरण कर,सम्मानित होती ,मैं नारी हूँ।स
घिर जाते हैं जब गहन अँधेरे, और रूठ जाते हैं सवेरे, तब मन को समझाना पड़ता है, फिर,फिर दीप जलाना पड़ता है। हर क्षण हमारा मान हरण, स्तब्ध समां सब करे श्रृवण, उन चीखों संग रुकता जीवन, पर फिर,फिर कदम बढा़न
कितना सरल है न? तुम्हारे लिये, सुनकर हमारा इंकार, देखकर हमारी उपेक्षा, फेंक देना तेजाब, हमारे चेहरे पर। पर!कितना दुष्कर है, हमारे लिये, वो पीडा़ सहना, उसी झुलसे चेहरे, के साथ रहना, दुनिया का सामना करन
मुरझा रही हैं उम्मीद कलियाँ, गिर रही हैं बिखरकर, कब आओगे तुम प्रियवर? हो रही हूँ मैं अब विक
तुम्हारे प्यार को, दिल की किताब, में दबाकर, देती रही , स्वयं को मैं धोखा, करती हूं तुमसे प्यार, इस सत्य को झुठलाकर। पर,फिर भी तुम, सदा मुस्कुराते रहे, सांसों के पन्नें महकाते रहे, जब भी देखा, मैंने
देह की शिराओं में,भर शोणित का लाल रंग,अपने आशीष के संग,देकर जीवन ,उसनेडाला मां की गोद में,आमोद,प्रमोद में।मां ने दिया ,अपनी परवरिश का रंग।पिता के स्नेह केसद्ववचन संग,पली मैं,बढी़ मैं,और उगते सूर्
हम बेटियां, आंगन की चिडि़यां, भरी आत्मविश्वास में, जल नापें, थल नापें, ऊंचे उडे़ं आकाश में। ना चिड़वे, का मुंह ताकें, ना बहेलियों से घबरायें हम, अटूट साहस , के पंख पसारें, तय खुद की, करें दिशायें हम।
उड़ने दो हमें भी,पतंगों की तरह,हैं चाहतें हमारी भी,कि हम भी महकें,पिता के आंगन,में निश्चिंच चहकें,खिलने दो हमें भी,सुमनों की तरह।लड़के व लड़की,के भेद में न बांटो,होने दो विकसित,मत डोर काटो।मत वासना के
कैसी विडंबना है कि,मेरा सारा समर्पण,मेरा सारा त्याग ,तुम क्षण भर में भुलाते हो।जलती हूं मैं,तुम्हारे लिये जब,अपना सर्वश्रेष्ठ कर,तभी तुम अपनी ,कीर्ति समां में फैला पाते हो।मेरा अस्तित्व ,तुमअपने तले छ
पलकों के आंचल में छुपकर,कितने ही सपने रोये,हौंसलों की जलीं चितायें,सती आशाओं की विधवायें।कंधे मन के हुये जरजर,दिन-रैन उसने जो शव ढो़ये।सुनहरे बचपन की हुयी विदाई,दुख की दूर कहीं बजी शहनाई।यौवन दूल्हा स
उम्मीद की धरा पर,पुनः स्वप्नों का आगमन,भय किस बात का?क्यों करूं मैं पलायन?बिद्ध हुयी सवालों के शर से,तो,छिपी रहती कायरों सी,न निकलती,मैं उस असर से!माना नियति की हुयी,हर कदम ही एक विजय,समाप्त न र
छोटी छोटी ,आकांक्षायें ,नयन सीपी में,संभाली मैंने ,महत्वाकांक्षा तो,कभी नहीं,पाली मैंने ।आंकाक्षा ही ,न पूर्ण हुयीं,महत्वाकांक्षा ,की क्या बात करूँ ?तब भी थे ,नयन सीपी में मोती,आज भी हैं ,अंतर बस इतना
बलात्कार, सिर्फ एक शब्द नहीं, ये पुरुषों की, कलुषित मानसिकता के, बजबजाते नाले से उपजे, वासना के कीट का, वो घिनौना कृत्य है , जो तहस-नहस करके रख देता है, एक नारी का सम्पूर्ण जीवन !! बलात्कार, जिसमें क्
ये मांग का सिंदूर , सिंदूर नहीं , ये खून है जो, किया तुमने मेरे , विश्वास का। ये माथे की बिंदी, जो याद दिलाती है मुझे, कि ,बंधन में जुड़कर,भी तुम्हारे संग मैं, नहीं हो पाई एक, करने ही कहां दिया? तुमने