घिर जाते हैं जब गहन अँधेरे,
और रूठ जाते हैं सवेरे,
तब मन को समझाना पड़ता है,
फिर,फिर दीप जलाना पड़ता है।
हर क्षण हमारा मान हरण,
स्तब्ध समां सब करे श्रृवण,
उन चीखों संग रुकता जीवन,
पर फिर,फिर कदम बढा़ना पड़ता है।
हम भी आपकी बहन सही,
नाम भिन्न पर देह वही,
मत निर्भया बनाओ हमको,
फिर,फिर दोहराना पड़ता है।
क्या समझो स्वप्नों का मरना,
पुनः एक नव प्रारंभ करना,
हम भी अहम अवयव जग के,
फिर,फिर बतलाना पड़ता है।
प्रभा मिश्रा 'नूतन'