बलात्कार,
सिर्फ एक शब्द नहीं,
ये पुरुषों की,
कलुषित मानसिकता के,
बजबजाते नाले से उपजे,
वासना के कीट का,
वो घिनौना कृत्य है ,
जो तहस-नहस करके रख देता है,
एक नारी का सम्पूर्ण जीवन !!
बलात्कार,
जिसमें क्षत-विक्षत न होते,
स्त्री के सिर्फ कोमल अँग,जननाँग,
टूटकर तिनका-तिनका
बिखर कर रह जाता है ,
उसका मन, उसकी हिम्मत,
उसकी आशायें,
उसकी जीने के प्रति उमंग !!
बलात्कार,
जो करके हरण,
स्त्री की स्वतंत्रता, उसकी पवित्रता,
उसके स्वप्न, उसका भविष्य,
थमा देता है उसके हाँथों में,
निराशा से भरी तनहाई और बेचारगी !!
बलात्कार,
जिसके पश्चात होता है आभास,
जैसे रेंग रहे हों ,असंख्य कीडे़ बदन पर ,
घिन आती है ,
स्वयं की देह देखकर,
भयभीत स्पंदन हर दम,
घुटता है आती-जाती श्वांसों का दम !!
बलात्कार,
एक बद्नुमा कभी न छूटने वाला दाग,
जो चिपक कर रह जाता है,
एक औरत के अस्तित्व पर!!
पर विडम्बना देखो,
सबकुछ जानते,समझते भी,
नासमझ बनकर,
आरोपित के लिये कहते हैं लोग,
मनुष्यता से गिरकर--
लड़के हैं गलती हो जाती है !!
प्रभा मिश्रा 'नूतन'