माँ की लाड़ली, पिता के ह्रदय की कली , बैठाई गई पलकों पर सदा, सँवरी,निखरी,नाजों से जो पली ,पर स्त्री हूँ ना तो कभी होना पडा़ शोहदों की फब्तियों का शिकार, कभी सहनी पडी़ एक तरफा प्यार के तेजाब की धार , कभी ससुराल में तानों और उलाहनाओं का हार पहनाया गया,कभी दहेज के लिए जिंदा जलाया गया, कभी हुआ बलात्कार तो कभी दुर्व्यसनों में लिप्त पिया का छोड़ना पडा़ द्वार ।स्त्री हूँ ना तभी , सही उपेक्षा कभी ,तो कभी वेदना में नहाई बेचारी कहलाई , मुझमें दिखती ही कहाँ !! पर पुरुष को बहन और एक माँ !! वासना के पुजारियों हेतु ,हूँ बस भोग की वस्तु क्योंकि स्त्री हूँ ना !!
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