ये मांग का सिंदूर ,
सिंदूर नहीं ,
ये खून है जो,
किया तुमने मेरे ,
विश्वास का।
ये माथे की बिंदी,
जो याद दिलाती है मुझे,
कि ,बंधन में जुड़कर,भी
तुम्हारे संग मैं,
नहीं हो पाई एक,
करने ही कहां दिया?
तुमने ह्रदय में अपने प्रवेश।
ये मंगलसूत्र ,
बन गया है ,वो
फांसी का फंदा ,मेरे लिये
जिसमें घुट रही हूं मैं
हर गुजरते क्षण।
ये खनकती हुयी चूडि़यां,
याद दिलाती हैं मुझे,
तुम्हारे मिथ्या हास्य ,
से परिपूरित वार्तालाप का ,
तुम्हारे बनावटी कहकहों का।
ये पैरों के पायल,ये बिछिया,
कराती हैं अहसास ,जैसे
पडी़ हों तुम्हारे साथ ,
जुडे़ अनचाहे बंधन की ,
पांवों में मेरे बेडि़यां,
मुक्ति चाहती हूं मैं ,
इन सब से ,
क्योंकि ये सब मुझे,
याद तुम्हारी दिलाते हैं,
उतार कर फेंक देना,
चाहती हूं इन्हें मैं,
ये चूडी़,ये बिंदी ,
ये पायल, ये कंगन,
जो कराते हैं अहसास,
कि मैं हूं एक सुहागन।
फरेब और छलावे,
ही हैं तुम्हारे ,मेरे संग,
बन गये हैं जो,
न चाहते हुये भी ,
मेरे अंग ।
एक ऐसे कवच ,
जिन्हें विलग कर
देना चाहती हूं मैं
अपने आप से।
मुक्ति पाना चाहती हूँ मैं,
इन सभी आभूषण से,
अनचाहे इस बंधन से।
प्रभा मिश्रा 'नूतन'