कितना सरल है न?
तुम्हारे लिये,
सुनकर हमारा इंकार,
देखकर हमारी उपेक्षा,
फेंक देना तेजाब,
हमारे चेहरे पर।
पर!कितना दुष्कर है,
हमारे लिये,
वो पीडा़ सहना,
उसी झुलसे चेहरे,
के साथ रहना,
दुनिया का सामना करना।
क्या समझ रखा,
है हमें प्रतिकाय?
हम भी ,
आपकी तरह इंसान हैं,
हमें भी है अधिकार,
कि हमें जो रुचता नहीं,
उसपर कर सकें इंकार।
फिर क्यों?
हमारे संग ये अन्याय,
क्यों सोचते हो,
कि ये करे ,
तो करे बस समर्पण,
कर सकते हैं,
हम भी प्रतिकरण!
आपके समान,
नहीं हम इतने निर्मम।
पर स्मरण रहे--
जब उबल उठता है,
एक स्त्री के क्रोध का पारावार,
जब सहनशीलता ,
खत्म हो जाती है,
तभी वह भरती है,
नयनों में अंगार,
प्रलय तभी आती है।
मत निमंत्रण दो प्रलय को,
कि फिर शायद इसमें,
तुम्हारा अस्तित्व ही,
न रहे शेष।
प्रभा मिश्रा 'नूतन'