गुस्से का, आक्रोश का एक बहुत बड़ा साइड इफेक्ट होता है. हमें ये याद नहीं रहता कि कब हमने मर्यादा की सीमा लांघ दी. कब हम उस महीन लकीर को पार कर गए जो आलोचना और अपमान को अलग करती है. किसी भी नाइंसाफी पर, बर्बरता पर हमारा फट पड़ना यकीनन इस बात का सबूत है कि हम ज़िंदा लोग हैं. किसी और के साथ हुआ अन्याय हमें कचोटता है, तो ये इस बात की निशानी है कि हमारे अंदर का मानवता का पौधा अभी हरा है. इसीलिए कठुआ में बच्ची के साथ हुई बर्बरता के खिलाफ सड़क पर उतरे लोग उम्मीद की किरण हैं. ये लोग भरोसा दिलाते हैं कि हममें अभी औरों की तकलीफ को महसूस करने का जज़्बा बाकी है. लेकिन… जब प्रतिरोध का यही स्वर किसी और के लिए गाली बनने लगे तो थम कर सोचना ज़रूरी हो जाता है.
कठुआ की बच्ची के साथ जो हुआ, उससे पूरा देश सकते में हैं. हर संवेदनशील इंसान को थर्रा दिया है इस घटना ने. इसकी प्रतिक्रिया में सोशल मीडिया से लेकर सड़क तक आवाज़ें उठने लगीं. उठनी भी चाहिए. एक सभ्य समाज की पहचान ही यही है कि वो किसी भी ट्रेजेडी को महसूस करे और फिर पीड़ितों के पक्ष में उठ खड़ा हो. ऐसा हुआ है और ये बिलाशक अच्छी बात है. लेकिन फिर उसी सभ्य समाज से ये उम्मीद भी की जाती है कि वो प्रतिरोध को उपहास में तब्दील न होने दें.
कठुआ वाली घटना में पीड़ित बच्ची मुसलमान है. आरोपी हिंदू समुदाय से हैं. इसी वजह से विरोध का नज़ला आरोपियों से होता हुआ हिंदू धर्म पर आ गिर रहा है. और ये सही नहीं है. ऐसी तमाम तस्वीरें घूम रही हैं जिनमें सीधे-सीधे हिंदू समुदाय के धार्मिक प्रतीकों का अपमान हो रहा है. ये तस्वीरें वीभत्स हैं. घृणित हैं. इन कार्टूनों और तस्वीरों से ऐसा लगता है, जैसे पूरे हिंदू समाज को इस घृणित काण्ड के लिए ज़िम्मेदार ठहराया जा रहा है. त्रिशूल पर कंडोम चढ़ाना, त्रिशूल को लिंग का आकार देना, स्त्री के प्राइवेट पार्ट में त्रिशूल घुसते हुए दिखाना ये सब बीमार दिमाग की उपज लगती है. ये तस्वीरें किसी का भला नहीं करेंगी.
जिन्होंने कठुआ वाला घिनौना काम किया है उनकी सज़ा समूचे धर्म की ब्रांडिंग करके तो नहीं ही दी जा सकती. ये कुछ-कुछ ऐसा ही है जैसे किसी एक टेररिस्ट की वजह से तमाम मुसलमानों को आतंकी मान लिया जाए. इस माइंडसेट का विरोध होता आया है न आजतक? फिर उसी को रूप बदल कर पेश करने की क्या तुक है?
ये तस्वीर देखिए. इसमें कहीं से कोई व्यंग्य नहीं झलकता. अगर कुछ झलकता है तो वो है बीमार मानसिकता. ये जी ख़राब करने वाली आइटम है.
हर तस्वीर क्रूरता की हद तक अपमानित करती है.
ये सभी तस्वीरें और कुछ नहीं, गंदगी का ढेर है. इनकी जितनी मजम्मत की जाए कम है.
इन तस्वीरों में से कुछ पेंटर दुर्गा मलाठी ने बनाई हैं. उनकी फेसबुक वॉल और फेसबुक पेज पर इन्हें देखा जा सकता है. इन पेंटिंग्स के बाद उन्हें काफी आलोचना झेलनी पड़ी है.
अक्सर हमारे यहां एक वाक्य बारबार दोहराया जाता है. सारे मुसलमान आतंकी नहीं होते. ऐसा कहते रहने की ज़रूरत क्यों पड़ती है? ताकि किसी एक धर्म की ग़लत ब्रांडिंग न हो. जब यही दूसरी तरफ से होने लगे तो टोका जाना ज़रूरी है. हिन्दुओं के धार्मिक प्रतीकों का यूं उपहास उड़ाना इस तमाम मामले को बेहद हल्का कर देता है. आखिर ये क्यों भूला जा रहा है कि कठुआ की बच्ची के लिए इंसाफ मांगते लोगों में बड़ी संख्या में हिंदू ही हैं. उनमें से कितने ही आस्तिक होंगे. शंकर भगवान में, उनके त्रिशूल में उनकी आस्था होगी. ऐसे में इन चीज़ों को बलात्कार का, हिंसा का प्रतीक बताना उनके साथ ज़्यादती है. तमाम मंदिर बलात्कार के अड्डे न हैं, न हो सकते हैं. इस तरह का जनरलाईजेशन मुल्क की पहले से भारी फिज़ा को और भी ख़राब कर देगा. दो समुदायों के आपसी रिश्तों में बारूद भर देगा. क्या हम ऐसा चाहते हैं?
किसी ने इन सब तस्वीरों का कोलाज भी बनाया है, जो सोशल मीडिया पर घूम रहा है.
कठुआ के अपराधियों ने जो किया वो उनकी अपनी नीचता है. इसके लिए उन्हें किसी धर्म ने नहीं उकसाया था. न ही उस मंदिर की इसमें कोई भूमिका है, जहां इस घटना को अंजाम दिया गया. ऐसे में तमाम मंदिरों को और पवित्र माने जानेवाले प्रतीकों को यूं बुरे सेन्स में प्रेजेंट किया जाएगा तो बात बनेगी नहीं, बिगड़ेगी. किसी भी सेंसिबल समाज की ये ज़िम्मेदारी होतीं है कि वो हर तबके की धार्मिक भावना का ख़याल रखे. फिर चाहे वो तबका अल्पसंख्यक हो या बहुसंख्यक.
हम इन तस्वीरों की मुखरता से निंदा करते हैं. हमारे साथ-साथ ये आपकी भी ज़िम्मेदारी है. आपको भी कोई ऐसी तस्वीरें शेयर करता मिले, तो उसे तुरंत टोक दीजिएगा. इस मुल्क के आपसी सद्भाव के लिए ऐसे लोग बहुत बड़ा ख़तरा हैं. इनसे हर एक को सतर्क रहने की ज़रूरत है. सतर्क रहिएगा.