*संपूर्ण विश्व में हमारा देश भारत आदिकाल से अपने संस्कार एवं संस्कृति के लिए जाना जाता था | परिवार में नई पीढ़ी एवं पुरानी पीढ़ी के बीच सामंजस्य इसका मुख्य कारण था | बुजुर्ग अपने घर के बालकों एवं नव युवकों को बचपन से ही संस्कार एवं संस्कृति की शिक्षा महापुरुषों की कहानियों के माध्यम से देते थे | इसके अतिरिक्त माता पिता के द्वारा अपने बच्चों का नैतिक स्तर सुधार करके उनमें प्रारंभ से ही स्वस्थ चिंतन आरोपित करने का प्रयास किया जाता था और सबसे बड़ी बात यह थी कि इसके लिए अतिरिक्त प्रयास नहीं करना पड़ता था | यह कह सकते हैं कि एक छोटे बालक के अनगढ़ मन को उत्कृष्टता के जिस सांचे ढाला जाएगा वही रूप परिपक्व होकर बाद में सामने आता है | नैतिक शिक्षा के अतिरिक्त माता-पिता के द्वारा अपने बालकों के दैनिक क्रियाकलापों पर ध्यान रखा जाता था जिससे कि बालक कुसंगति में ना पड़ के अच्छे संस्कार पाता था | किसी भी बालक का शिक्षा का प्रथम सोपान घर से ही आरंभ होता है और पूर्व काल में बालक के विद्यालय जाने के पहले ही माता पिता उसमें नैतिक शिक्षा एवं संस्कार आरोपित कर देते थे | नैतिकता कोई शिक्षा एवं दर्शन नहीं बल्कि यह तो एक विशेष जीवन प्रवाह का नाम है जिसे शिक्षण सिद्धांतों के नाम पर बालकों में आरोपित नहीं किया जा सकता है , यह बात हमारे पूर्वज भली-भांति जानते थे | बालक यदि संस्कारी होता था तो उसका मुख्य कारण था माता-पिता का संस्कारवान होना क्योंकि बालक जितना देख कर सीखता है उतना सिखाने से कभी नहीं सीख सकता | इसलिए हमारे पूर्वज स्वयं संस्कारों को पालन करते थे जिन्हें देखकर बालक स्वयं संस्कारवान होता था | विद्यालयों की शिक्षा पुस्तकीय ज्ञान से अलग हटकर जीवन दर्शन पर आधारित होती थी परंतु अब समय परिवर्तित होता दिख रहा है | पूर्व काल की कोई भी बात अब देखने को नहीं मिलती ना तो वह संस्कार है और ना ही संस्कृति की समझ | इसका दोषी बालक को माना जाए या की माता पिता के संस्कार को ?*
*आज चारों ओर अपराध अपने चरम पर है और आश्चर्य की बात यह है कि इन अपराधियों में नवयुवक की संख्या सबसे अधिक है | आज नैतिक मूल्यों में गिरावट स्पष्ट देखी जा सकती है | आज के नवयुवकों में अपने अथवा दूसरों के भले बुरे की ज्ञान की भारी कमी देखने को मिल रही है | वर्तमान समय में नैतिक स्तर में अत्यंत तीव्र परिवर्तन आ रहा है | आज जिसे नैतिक रूप में ग्रहण किया जा रहा है वही आने वाली पीढ़ी के लिए काम करेगा | आज अपने बालकों से माता-पिता की दूरी एवं बालक को कुछ भी कर देने की स्वतंत्रता इसका मुख्य कारण है | मैं "आचार्य अर्जुन तिवारी" यह बताना चाहूंगा कि आज का बालक ही कल का समाज सुजेता बनेगा और बालक की अभिरुचि जैसी होगी वह उसी प्रकार के भावी समाज का निर्माण भी करेगा | नवयुवक जिसे नैतिक रुप में सही समझेगा उसी प्रकार के गुण कल के समाज में दिखाई पड़ेंगे | आज की परिस्थिति को देखते हुए आने वाले भावी समाज की परिकल्पना करने मात्र से ही मन दुखित हो जाता है | जिन हाथों में कलम होनी चाहिए उन हाथों में आज हथियार देखकर मन उद्विग्न हो जाता है | आज के बालकों में अपने संस्कार संस्कृति बहुत कम ही देखने को मिलते | यह बालक बचपन से ही ऐसे नहीं होते हैं यदि वे कुमार्गगामी हो रहे हैं तो इसका मुख्य कारण है कि उनके परिवार में उनको संस्कार नहीं दिया गया | माता - पिता की व्यस्तता एवं घर में बुजुर्गों का ना होना इसका मुख्य कारण है | अपने सुख के लिए अपने बुजुर्गों से अलग होकर लोग स्वयं को ऐश्वर्याशाली भले ही समझते हैं परंतु घर के बुजुर्ग घर की नींव होते हैं यह शायद वे नहीं जानते हैं | घर में बुजुर्ग ना होने पर और माता-पिता के अपने व्यवसाय में व्यस्त रहने पर बालक स्वतंत्र एवं स्वछन्द हो जाता है | बालक का अकेलापन उसे कुमार्ग की ओर मोड़ देता है | बालक के जीवन में इस अभाव की पूर्ति के लिए हमें नए सिरे से विचार करना होगा और उनके सुंदर जीवन की कामना तभी पूरी हो सकती है जब उनमें संस्कारों का आरोपण हो और इन संस्कारों का रोपण घर के बुजुर्ग ही कर सकते हैं | इसलिए अपने समाज एवं परिवार को बचाने के लिए प्रत्येक व्यक्ति को अपने बुजुर्गों को सम्मान सहित घर में रखना चाहिए जिससे कि परिवार की नई पीढ़ी उनसे सामंजस्य बिठाकर की संस्कारवान बन सके |*
*आज प्रत्येक व्यक्ति को विचार करना ही होगा कि उनके बालक में चरित्रनिष्ठा समाजनिष्ठा सुसंस्कार किस प्रकार स्थिर रहते हुए निरंतर आगे बढ़ सकते है | बालकों के प्रति उपेक्षा पूर्ण व्यवहार करके यह कभी भी संभव नहीं हो सकता |*