*इस धराधाम पर जन्म लेने के बाद अपनी जीवन
यात्रा में आगे बढ़ने के लिए प्रत्येक मनुष्य का एक लक्ष्य होता | हमारे महापुरुषों ने मानव जीवन का लक्ष्य एवं उद्देश्य आत्मोन्नति करते हुए सदाचरण का पालन करके ईश्वर की प्राप्ति करना बताया है | ईश्वर को प्राप्त करने के लिए वैसे तो मनुष्य अनेक साधन साधता है परंतु अपने हृदय में व्याप्त स्वार्थपरता , काम , क्रोध , मोह , लोभ , संकीर्ण मानसिकता एवं छुद्रता का त्याग नहीं कर पाता | ऐसे व्यक्ति चाहे जितना उद्योग कर लें उन्हें परमात्मा की प्राप्ति कभी नहीं हो सकती , क्योंकि राघवेन्द्र सरकार ने स्वयं घोषणा की है :- "निर्मल मन जन सो मोंहिं पावा ! मोहिं कपट छल छिद्र न भावा !!" कोई भी मनुष्य जानबूझ कर यह अवगुण स्वयं में नहीं लाना चाहता बल्कि यह सारे अवगुण मनुष्य में उसकी महत्वाकांक्षा के कारण स्वत: प्रकट हो जाते हैं | मनुष्य का महत्वकांक्षी होना एक स्वभाविक गुण होता है | हर व्यक्ति जीवन में कुछ विशेष प्राप्त करने की इच्छा रखता है | मनुष्य अनेक प्रकार की कल्पनाएँ करता है | वह स्वयं को ऊपर उठाने के लिए योजनाएँ बनाता है | कल्पना तो सबके पास होती हैं लेकिन कल्पना को साकार करने की शक्ति केवल किसी-किसी के पास ही होती है | जिनके पास इन शक्तियों का अभाव होता है वही लोग अवगुणों एवं गवत मार्गों का अनुसरण करके अपनी महत्वाकांक्षा को पूर्ण करना चाहते हैं | ऐसे व्यक्तियों का उद्देश्य केवल अपने आप ऊपर उठाकर अपनी महत्वाकांक्षा को पूरा करना होता है भले उनके इस कार्य के लिए समाज में उनका असम्मान हो जाय | जब मनुष्य ऐसा करने लगता है तो वह अपने जीवन के परम लक्ष्य को भूल जाता है और सांसारिकता में मगन रहने लगता है |* *आज के भौतिकवादी युग में प्राय: यही देखने को मिल रहा है कि लोग जीवन का लक्ष्य मात्र अपने स्वार्थ एवं निजी महत्वाकांक्षाओं की पूर्ति तक सीमित हैं | जबकि ऐसा करने से मनुष्य के उद्देश्य छुद्र बन जाते हैं , एवं उनकी मानसिकता भी संकीर्ण बन कर रह जाती है | इस संकीर्ण स्वार्थपरता को धीरे धीरे व्यक्तित्व का विनाश करने का अवसर मिल जाता है | ऐसे व्यक्ति मात्र जीवन का लक्ष्य विलास - वैभव मान कर बैठ जाते हैं , एवं उनकी आत्मा के मार्ग अवरुद्ध हो जाते हैं | इन्हीं निकृष्ट उद्देश्यों की पूर्ति के लिए ऐसे व्यक्ति अपने शरीर ,
स्वास्थ्य , मन एवं विचारों को भी नष्ट करते दिखाई पड़ते हैं | छुद्र विचारों के निरंतर प्रहारों से उनका मन मस्तिष्क श्मशान की तरह मनोविकारों की जलती चिताओं से भरा रहता है | जिस जीवन को सुख , शांति , आनंद के साथ जिया जा सकता था उसी जीवन को दुखों का जखीरा बनने में देर नहीं लगती | मेरा "आचार्य अर्जुन तिवारी" का मानना है कि सोंच में छोटा मन रखने वाले ना तो स्वयं विकसित हो पाते हैं और ना ही वे अपने परिवार के विकास - पोषण के लिए कोई सम्यक व्यवस्था बना पाते हैं | ऐसे व्यक्तियों के यहां के बच्चे भी संस्कारहीन हीं हो जाते हैं , और उनकी मानसिकता के अनुसार उनके आचरण समाज में परिलक्षित होते हैं | जिस प्रकार मनुष्य का आचरण होता है उससे उसके भीतर की छुद्रता एवं निकृष्टता का परिचय स्वत: मिल जाता है | मनुष्य की छुद्रता देखने में तो लाभदायक लगती है परंतु उसके दुष्परिणाम व्यक्तिगत पतन से लेकर सामाजिक असहयोग के रूप में दिखाई पड़ते हैं |* *यदि मानव जीवन के लक्ष्य को प्राप्त करना है तो सर्वप्रथम अपनी मानसिकता को सकारात्मक रखते हुए अपने जीवन में उदारता का समावेश करना ही होगा |*