*इस समस्त सृष्टि में जहां अनेकों प्रकार के जीव भ्रमण करते हैं जलचर , थलचर , नभचर मिला करके चौरासी लाख योनियाँ बनती है | इन चौरासी लाख योनियों में मानव योनि को सर्वश्रेष्ठ बताते हुए हमारे धर्मग्रंथ इस पर अनेकों अध्यात्म वर्णन करते हुए दृष्टिगत होते हैं | प्रायः सभी धर्मग्रंथों में इस मानव शरीर को देवताओं के लिए भी दुर्लभ बताया गया है | बाबा गोस्वामी तुलसीदास जी अपने मानस में लिखते हैं :- "बड़े भाग मानुष तन पावा ! सुर दुर्लभ सदग्रंथहिं गावा !! कहने का अर्थ है यह मानव शरीर जो देवताओं के लिए भी दुर्लभ है बड़े भाग्य से जीव को प्राप्त होता है परंतु अपने इसी मानस बाबाजी ने एक चौपाई और लिख दी है :- छिति जल पावक गगन समीरा ! पंच रचित अति अधम शरीरा !! अर्थात पृथ्वी , जल , अग्नि , आकाश एवं वायु रूपी पंच तत्वों से बना हुआ मनुष्य का शरीर अति अधम है | अधम अर्थात पापयुक्त या नीच | बाबा जी की चौपाई को पढ़कर के हृदय में भ्रम उत्पन्न हो जाता है कि जो मानव शरीर देवताओं के लिए भी दुर्लभ है वह अधम कैसे हो सकता है ? यह समझने के लिए मनुष्य को सद्गुरु की शरण में जाना पड़ेगा , क्योंकि "गुरु बिन होइ न ज्ञान" | बिना सद्गुरु के इस शरीर की संरचना एवं इस के रहस्य को जान पाना कठिन ही नहीं बल्कि असंभव है | इस शरीर में अनेक अच्छाइयों के साथ नाना प्रकार की नकारात्मक बुराइयां भी समावेशित होती हैं , जहां मनुष्य के सद्गुण उसके मानव शरीर की उपादेयता को सिद्ध करते हैं वही यही सुर दुर्लभ शरीर मनुष्य के दुर्गुणों के कारण अधम की श्रेणी में चला जाता है | अपने कर्मों के अनुसार ही शरीर को दुर्लभ एवं अधम की श्रेणी प्राप्त होती है | यह बड़ा ही गूढ़ रहस्य इसको समझ पाना इतना आसान नहीं है जितना कि हम मान लेते हैं |*
*आज का जो परिवेश है उसके अनुसार स्वयं के शरीर को अधम की श्रेणी में जाने से बचा पाना अत्यंत दुष्कर कार्य है | जिस प्रकार किसी संकरी पगडंडी पर सम्हल कर चलने के बाद भी तनिक चूक होजाने पर मनुष्य गिर पड़ता है उसी प्रकार भगवत्प्राप्ति का उद्देश्य लेकर इस संसार में आया मनुष्य विषय वासनाओं में फंसकर पतित हो जाता है | मैं "आचार्य अर्जुन तिवारी" सद्गुरुओं के सदुपदेश के माध्यम से मिले ज्ञान प्रसाद को आधार मानकर यह कह रहा हूँ कि जब जीव मानव योनि पाकर इस धरा धाम पर आता है तो उसका जीवन दिव्य एवं शरीर सुरदुर्लभ होता है , परन्तु जब वह धीरे - धीरे काम , क्रोध , लोभ , मोहादि षड्विकारों के वशीभूत होकरके कृत्य करने लगता है तो कुछ लोग उसे अधम की श्रेणी में रखने लगते हैं , परंतु ऐसा नहीं है क्योंकि काम , क्रोधादि विकारों से कोई भी बच नहीं पाया है | ऐसे में अधम की श्रेणी निर्धारित करना कठिन कार्य है | जहाँ तक मेरा विचार है कि ये पृथ्वी , जल , अग्नि , आकाश एवं वायु के सम्मिश्रण से बना पंचभूत शरीर तो ऐसे भी अधम (नीच, पापयुक्त) है किन्तु इसमें भी जो योग , यज्ञ , जप , तप , ध्यान , मानसिक बौद्धिक कर्म , वेदादि श्रवण , कीर्तन , भजन , मनन , निदिध्यासन , तीर्थाटन , दान आदि करने से स्वयं को वंचित रखते हैं वे ही मनुष्य अधम की श्रेणी में आते हैं | मानव जन्म पाकर भी यदि उपरोक्त कर्म नहीं किये जा रहे हैं तो यह सुरदुर्लभ शरीर अधम कहा जाता है |*
*यह मानव जीवन बहुत ही भाग्य से मिलता है | इसके महत्त्व को समझते हुए इसकी सार्थकता बनाये रखने का प्रयास प्रत्येक मनुष्य को करते रहना चाहिए जिससे कि यह शरीर "अधम" की श्रेणी में न जाने पाये |*