डियर काव्यांक्षी
कैसी हो ,मै अच्छी हूं,काव्यांक्षी ये अकेलापन भी कैसा है , भीड़ में भी करीब होता है,
अक्सर खुद बातें करती हु, शिकायत कर रूठती खुद को ही मनाती हूं, तन्हा खुद अक्सर मैं पाती हूं
तन्हाई में खुद के संग वक्त बिताती हूं,खुद को ही अपनी सखी बनाती हूं, खाली मन खामोश जहन, खुद से मिलती मिलाती हूं, मै खुद को अकेला ही पाती हूं, खामोश मंजर
सुनी सुनी नजर, खुद को आवाज सुनती सुनाती हूं,
ना कोई रूबरू ना किसी से गुफ्तगू, ना साथी ना संगी, कैसी अकेलेपन की दुनिया ये अतरंगी,
क्या कभी अपना मेरे करीब आएगा, ये मन क्या किसी का साथ पाएगा, किसी अपने की होती है आस, क्या मिलेगा कभी अपनेपन का अहसास, अक्सर खुद को अकेला ही पाती हूं,
मुश्किल ये अकेलेपन का सफर है, क्या करे न कोई साथी ना हमसफ़र है, क्या कभी कोई हाथ थमेगा इस राह ए जिंदगी के सफर में,जब लड़खड़ाए कदम क्या कोई संभालेगा, क्या कभी किसी का साथ मिलेगा ये दिल भी गुलशन सा खिलेगा, क्या किसी की यादों में मुस्कुराएंगे , क्या साथ कभी किसी का पाएंगे
ये अकेलापन बड़ा खलता है एक लम्हे को भी ना चैन मिलता है ।
अपना ख्याल रखना काव्यांक्षी अब चलती हु फिर मिलते है
काव्या