होटल मृणालिका से लौटने के बाद जब सलिल अपने आँफिस में पहुंचा, काफी थक चुका था। उसकी आँखें लाल-लाल हो चुकी थी और सांसें चढने लगा था। ऐसे में उसने कुर्सी के पीछे दीवाल पर सिर टिकाया और कुर्सी पर निढाल होकर पसर गया।....आँखें बंद और दिमाग में विचारों के झंझावात। आखिर ऐसा हो भी क्यों नहीं, बीते दो दिन, दस अक्तुबर एवं ग्यारह अक्तुबर "और दो हत्याएँ " वह भी इस प्रकार से कि उलझन में डाल दे। वैसे भी आज तक उसने न जाने कितने ही केस साँल्व किए थे,.... परन्तु "मर्डर का यह केस" मानो उसके लिए सिर दर्द के समान था।
वह सोच ही रहा था कि अब वो किस प्रकार के "कदम" उठाए कि मामला सुलझाने में उसे सफलता मिले। तभी आँफिस में रोमील ने भी कदम रखा और आकर धम्म से सामने बाली कुर्सी पर बैठ गया। उसके आने से सलिल की तंद्रा टूटी, फिर तो उसने कलाईं घड़ी पर नजर डाली, रात के बारह बज रहे थे। रात के बारह बज चुके थे, ऐसे में थोड़ा सो लेना चाहिए, क्योंकि अगले दिन भी तो भागदौड़ रहने बाली ही-है। ऐसा सोचकर सलिल अपने शीट पर से उठा और आँफिस को अंदर से बंद कर अपनी शीट पर पूर्ववत आकर बैठ गया। परन्तु निंद आए तब न, हृदय में तो विचारों के झंझावात चल रहे थे, तो आँखों में निंद कहां से आती।
दिमाग में तो नंदा एवं नंदिनी के हत्या का "दृश्य " घूमने लगता था। वह आवाज "रति संवाद- रति संवाद" एक शोर सा बनकर उसके कान में गूंज रहा था। उसे इस प्रकार की अनुभूति हो रही थी कि "उसके सामने ही, अभी-अभी ही जैसे घटना घटित हुई हो"। उफ!.....कितना भयावह दृश्य होगा, “जब नंदा एवं नंदिनी ने तड़प- तड़प कर दम तोड़ा होगा।.....परन्तु क्यों? इस घटना के पीछे कारण क्या है और इसका सूत्रधार कौन हो सकता है? ऐसे ढेर सवाल थे। जिसका उत्तर उसको ही ढूंढना था,....परन्तु उससे पहले जानना जरूरी था कि इस हत्याओं के कारण क्या है। इस "वीभत्स" हत्या प्रकरण को अंजाम देने बाला आखिर लड़का है, या फिर लड़की है? इन दो प्रश्न के उत्तर मिल जाने पर बाकी के प्रश्न स्वतः ही हल हो जाने थे। इसी दो प्रश्न में तो पूरा का पूरा केस उलझा हुआ था। ऐसे में उसको यही प्रयास करना था कि इन दोनों प्रश्नों के करीब पहुंच जाए।
परन्तु उससे पहले....उसको इस सिलसिलेवार होते हत्याकांड को रोकने के लिए भी प्रयास करना था। क्योंकि लगातार इसी क्रम में शहर में हत्याओं को अंजाम दिया गया, तो शहर में एक अराजकता सी छा जाएगी। ऐसे में एक तो मीडिया बाले इस घटना का जमकर फायदा उठाना चाहेंगे। वो अपने टी.आर. पी. को बढाने के चक्कर में अपनी "सीमा" को भूलने से भी गुरेज नहीं करेंगे। दूसरे लोगों का "पुलिस डिपार्ट" से विश्वास उठने लगेगा और दोनों ही स्थिति में उसकी परेशानी बढ जाएगी।.....सलिल अच्छी तरह से जानता था कि वो इन दोनों परिस्थितियों पर नियंत्रण नहीं कर सकता। क्योंकि मीडिया बालों से उलझने की भूल वो अब कर नहीं सकता। क्योंकि मीडिया से उलझकर उसने देख लिया था कि इसका परिणाम क्या होता है।
सोचते-सोचते सलिल ने करवट बदला, तभी उसकी नजर रोमील पर गई। रोमील तो आँखें बंद कर कुंभकर्ण की तरह निंद खींच रहा था। उसे इस तरह से निंद खिचता देखकर सलिल को चिढ हुई,.....उसके दिल में हुआ कि खींच कर लात मारे,....परन्तु ऐसा वो अभी तो नहीं कर सकता था। जानता था कि दो दिनों की थकावट उसको भी है, इसलिये उसे सोने देना चाहिए। सोच कर उसने अपनी नजर रोमील पर से हटा ली और फिर वो सोचा कि "खुद भी थोड़ी निंद खींच ले।...परन्तु शायद उसके नसीब में निंद नहीं लिखा था, क्योंकि उसने जैसे ही आँखों को बंद की,....वैसे ही उसके मोबाइल ने वीप दी।
रात के इस समय कौन हो सकता है? सहसा ही उसके दिमाग में प्रश्न उभड़ा और जैसे ही उसने मोबाइल उठाकर देखा...."एस. पी. साहब सामने फोन लाइन पर थे। बस फिर क्या था, सलिल संभल कर कुर्सी पर बैठ गया और फिर उसने काँल रीसिव की। उधर से साहब ने उसका हाल-चाल पुछा और सीधे पुलिस मूख्यालय आने के लिए कहा। बाँस के आदेश सुनकर सलिल ने सिर्फ हां में सिर हिलाया, फिर तो फोन कनेक्शन कट गया।.....परन्तु बहुत देर तक सलिल फोन को ही घुरता रहा, मानो कि बाँस फोन में ही घुसे बैठे हो। एक तो रात का आलम, दूसरे थकावट, ऐसे में उसकी इच्छा एक कदम चलने की नहीं थी। लेकिन इस स्थिति में वो कर भी क्या सकता था, "बाँस का आदेश आखिरकार पालन करने के लिए होता है"। इसमें मनाही अथवा कोताही करने की छूट नहीं होती।
सोचकर वह अपने शीट से उठा, फिर उसने रोमील को उठाया।.....रोमील तो अचानक ही इस प्रकार से निंद से जगाने पर हकबका कर उठा। उसकी सांस तेज-तेज चल रही थी और ऐसे में उसने परेशान नजरों से सलिल को देखा, जिसमें शिकायत के भाव थे। जबकि सलिल ने पहले तो आँफिस में जलते हुए बल्ब को देखा, फिर रोमील को ऊँचे स्वर में सुना दिया कि अभी पुलिस मूख्यालय चलना है, क्योंकि बाँस का आदेश है। सुनकर रोमील मन ही मन चिढा, परन्तु आखिरकार वो कर भी तो कुछ नहीं सकता था, इसलिये मन को मार कर सलिल के पीछे-पीछे आँफिस से बाहर निकला। फिर दोनों स्काँरपियों के पास पहुंचे, सलिल ने ड्राइविंग शीट संभाल ली और रोमील बगल में बैठा। इसके बाद तो स्काँरपियों श्टार्ट होकर पुलिस स्टेशन के गेट से निकली और सड़क पर सरपट दौड़ने लगी।
लेकिन सलिल, वो अपने विचार को किस प्रकार से रोके। जिस रफ्तार से कार सड़क पर भागी जा रही थी, उसी रफ्तार से उसके विचार भी भागे जा रहे थे। पीछे छूटती शहर की ऊँची-ऊँची बिल्डिंगे और पीछे छूटता सड़क। हलांकि सलिल पूरी सावधानी के साथ कार ड्राइव कर रहा था। वैसे तो रात के इस समय सड़क पर ट्रैफिक न के बराबर थी, फिर भी तनिक भूल होने पर परिणाम भयावह हो सकते थे। इसलिये वो सावधान होकर ड्राइव करना चाहता था। लेकिन वो अपने विचारों का क्या करें, जो उसे बार-बार अपने लपेटे में ले रही थी, उसको उलझाए जा रही थी। जबकि बगल बाले शीट पर बैठा हुआ रोमील झपकी लेने में व्यस्त था।
उसे इस तरह से निंद लेता देखकर सलिल चिढ गया। परन्तु न जाने क्या सोचकर उसने रोमील को सोने दिया। जबकि आधे घंटे का सफर कब बीत गया, उसे पता ही नहीं चला। पुलिस मूख्यालय आ चुका था, इसलिये उसने कार गेट से अंदर लिया और पोर्च में खड़ी की, फिर रोमील को निंद से जगा दिया। फिर दोनों कार से बाहर निकले और मूख्यालय बिल्डिंग की ओर बढे, मन में संशय लिए हुए। आखिर रात के इस समय मूख्यालय बुलाने का कारण क्या हो सकता है? प्रश्न सहज ही दोनों के मन में उठ रहे थे। रात के इस समय बुलाने का मतलब खास ही हो सकता है। सोचते हुए वे बिल्डिंग के गलियारों से गुजर रहे थे और एस. पी. साहब के आँफिस की ओर बढ रहे थे।
रात के इस समय भी मूख्यालय में काफी चहल-पहल थी। पुलिस अधिकारी पूरी मुस्तैदी के साथ अपने कार्य का संपादन कर रहे थे, जबकि चप्पे- चप्पे पर तैनात सुरक्षा के लिए पुलिस कर्मी पूरी मुस्तैदी के साथ अपनी डियूटी को निभा रहे थे। गलियारों से गुजरते हुए सलिल की आँखें इन सभी चीजों को देखती जा रही थी। जबकि रोमील, वह तो चलते हुए भी ऊँघ रहा था। उसे ऊँघता देखकर सलिल को अंदर से कुढ़न हो रही थी। उसे अफसोस हो रहा था कि बेकार में ही उसने रोमील को साथ आने के लिए कह दिया। खैर!.....अब क्या हो सकता था, वे दोनों तो एस. पी. साहब के आँफिस के करीब पहुंच चुके थे और जैसे ही उन्होंने अंदर कदम रखा।
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क्रमशः-